प्रवीण कुमार
भारत-चीन के बीच हिंसक झड़प और उससे उपजे तनाव के बाद देश में चीनी उत्पादों के बहिष्कार करने का जो विचार और व्यवहार उमड़ा हुआ है उसकी पृष्ठभूमि में 18 जून को एक खबर आई कि अमेजन इंडिया पर वनप्लस प्रो-8 की सेल चंद मिनटों में ही खत्म हो गईं।
अमेजन ने इस बात की जानकारी तो नहीं दी कि सेल कितने मिनट में खत्म हुई, लेकिन इस दौरान इस चाइनीज हैंडसेट की सभी यूनिट्स बिक गईं। वाकई हम भारत के लोग इमोशन में अजब-गजब तरीके से सोच लेते हैं और मशाल लेकर निकल पड़ते हैं कि आज तो सारे चीनी प्रोडक्ट्स को आग के हवाले करके रहेंगे। लेकिन जब उस आग में मेड इन चाइना मोबाइल, लैपटॉप, टैबलेट और घर के दीवारों की शोभा बढ़ा रहे एचडी एलईडी स्मार्ट टीवी को डालने की बारी आती है तो होश फाख्ता हो जाते हैं कि अरे, इसके बिना तो जिंदगी ही बेनूर हो जाएगी। तो फिर हारकर चीनी तानाशाह शी जिनपिंग के पुतले को आग के हवाले कर हम अपना गुबार निकाल लेते हैं और यह मान लेते हैं कि हमने चीन को युद्ध में परास्त कर दिया। लेकिन जमीनी हकीकत इससे बिल्कुल अलग है जिसे देश की जनता समझ नहीं पाती है। वह ये भी नहीं समझ पाती कि चीन बार-बार हमारी पीठ में छूरा घोंपता है तो हमारी सरकार चीनी सामान का आयात बंद क्यों नहीं कर देती। और अगर आयात बैन नहीं कर सकती तो फिर सरकार हमें आत्मनिर्भर भारत का पाठ क्यों पढ़ा रही है?
दरअसल, भारत और चीन के बीच गलवान घाटी में पिछले दिनों हुए खूनी टकराव ने एक बार फिर से भारत में चीनी कंपनियों के बिजनेस और दबदबे को लेकर विमर्श को उभार दिया है। लोग सीधे तौर पर सोच लेते हैं कि भारत चीन के लिए एक बहुत बड़े बाजार के रूप में है और अगर भारत सरकार उसके सामान को आयात करना बंद कर दे तो चीन की आर्थिक कमर टूट जाएगी। लेकिन हम उन तथ्यों से अनजान हैं कि चीन की कंपनियों के सस्ते उत्पादों ने भारत में अपनी जड़ें इस कदर जमा ली हैं कि उनको उखाड़ पाना बेहद मुश्किल है। सच बात तो यह है कि भारत किसी भी देश का इंपोर्ट या एक्सपोर्ट को बंद नहीं कर सकता। इसकी वजह विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) है। डब्ल्यूटीओ के नियमों के मुताबिक, किसी देश की सरकार आयात या निर्यात को एकदम से बंद नहीं कर सकती। अगर ऐसा होने लग जाए तो ग्लोबलाइजेशन ही खत्म हो जाएगा। दिक्कत की बात यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो कुछ कहते हैं लगो उसे समझ नहीं पाते हैं। उनका कहना है कि देश आत्मनिर्भर बने। इसका मतलब किसी का बहिष्कार करना नहीं होता है। ग्राहक और कंपनी अपने स्तर से चाहें तो कर सकते हैं, लेकिन डब्ल्यूटीओ से बंधी सरकार ऐसा नहीं कर सकती। दूसरी बात यह है कि चीनी कंपनियों के प्रोडक्ट्स की घुसपैठ भारत के बाजार में इस कदर हो चुकी है उससे निकलना कठिन ही नहीं असंभव जैसा है। इस समझने के लिए इन आंकड़ों पर गौर फरमाना जरूरी है कि ताकि हम जान सकें कि चीन की किन कंपनियों की भारत में किस सेक्टर में कितनी हिस्सेदारी है और अगर उनको हटा दिया जाए तो भारत के पास उसका क्या विकल्प हो सकता है…
- स्मार्टफोन की बात करें तो भारत में इसका बाजार 2 लाख करोड़ रुपए का है और इसमें 72 प्रतिशत हिस्सा चीनी कंपनियों के प्रोडक्ट का है। अगर आप विकल्प की बात करेंगे तो इस मामले में भारत के पास कोई ऑप्सन नहीं है। क्योंकि चीन के ब्रांड हर प्राइस सेगमेंट में और आरएंडडी में काफी आगे हैं।
- भारत में टेलीविजन का बाजार करीब 25,000 करोड़ रुपए का है। इसमें चीनी कंपनियों की स्मार्ट टीवी की हिस्सेदारी 42 से 45 प्रतिशत है। नॉन स्मार्ट टीवी की हिस्सेदारी 7-9 प्रतिशत है। भारत इस बाजार को तोड़ तो सकता है, लेकिन यह काफी महंगा पड़ेगा। क्योंकि भारत की तुलना में चीन की स्मार्ट टीवी 20-45 प्रतिशत तक सस्ती है और भारतीय खरीददार की जेब इसके लिए तैयार नहीं है।
- भारत में टेलीकॉम इक्विपमेंट का बाजार 12,000 करोड़ रुपए का है। इसमें चीनी कंपनियों की हिस्सेदारी 25 प्रतिशत के आसपास है।
इस बाजार को भी भारत तोड़ सकता है, लेकिन यह भी काफी महंगा पड़ेगा। इसी तरह से होम अप्लायंसेस की बात करें तो इस सेगमेंट का मार्केट साइज 50 हजार करोड़ रुपए का है। इसमें चीनी कंपनियों की हिस्सेदारी 10-12 प्रतिशत है। भारत के लिए इस बाजार को भी अपने कब्जे में किया जा सकता है, लेकिन चीन के बड़े ब्रांड काफी सस्ते में भारत में उपलब्ध हैं। - ऑटो कंपोनेंट सेगमेंट का मार्केट भारत में 57 अरब डॉलर का है। इसमें चीनी कंपनियों की हिस्सेदारी 26 प्रतिशत है। भारत के लिए इस बाजार को तोड़ना बहुत ही मुश्किल है। क्योंकि आरएंडी पर काफी पैसा खर्च करना होगा जिसके लिए भारत की कंपनियां तैयार नहीं है। यही हालत सोलर पावर मार्केट का है। इस मार्केट का साइज 37 हजार 916 मेगावाट का है। इसमें चीन की कंपनियों का हिस्सा 90 प्रतिशत है। भारत के लिए यह इसलिए मुश्किल है क्योंकि घरेलू स्तर पर उत्पादन काफी कमजोर है और विकल्प बना भी लिया तो चीन की तुलना में काफी महंगा होगा।
- अब बात करते हैं दवा कारोबार की। भारत में फार्मा एपीआई का मार्केट साइज 2 अरब डॉलर का है। इसमें चीन की कंपनियों की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत है। फार्मा सेक्टर के जानकारों का कहना है कि इस मार्केट में चीन को पछाड़ना नामुमकिन है। क्योंकि अन्य सोर्स काफी महंगे हैं और साथ ही रेगुलेटरी मुश्किलें भी गंभीर हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अभी भी कोरोना महामारी से निपटने के लिए कई अहम उपकरणों जैसे कि इंफ़्रा रेड थर्मामीटर, पल्स ऑक्सीमीटर आदि चीन से ही मंगाए जा रहे हैं।
उपरोक्त तमाम तथ्यों का निष्कर्ष यही है कि हमें जो प्रोडक्ट बाजार में 10 रुपए में मिल रहा है, वही प्रोडक्ट अगर चीन 5 से 6 रुपए में देने के लिए बैठा है और ऊपर से हमारे देश की 85 प्रतिशत आबादी की प्रति व्यक्ति आय इतनी कम है कि वह चाहकर भी चाइनीज प्रोडक्ट को अपनी जिंदगी से बाहर नहीं कर सकता। कहने का मतलब यह कि अगर हम बेहतरीन फीचर्स वाले स्मार्टफोन और स्मार्ट टीवी के स्क्रीन पर खेलना बंद करने की ठान लें तो चीन से हारी बाजी को पलटा जा सकता है। क्योंकि स्मार्टफोन और स्मार्ट टीवी ने जिंदगी को गुलाम बना लिया है। हर शख्स घर में आटा से पहले मोबाइल में डाटा है कि नहीं इसकी चिंता पहले करता है और यहीं से शुरू होती है हमारी हार का सिलसिला। और इस वक्त कोरोना काल में जिस तरह से हर कोई लॉकडाउन की मार झेल रहा है, वर्क फ्रॉम होम में जिस तरह से मोबाइल और कंप्यूटर उसकी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन गया है, चीनी उत्पाद को भारतीय बाजार से बेदखल करने की सोच को जमीन पर उतारना चांद को छूने जैसा ही है।
चीन-भारत व्यापार के जानकारों की बात करें तो इस बात को वो भी मानते हैं कि चीन से व्यापारिक प्रतिबंध तोड़ने और उनके सामानों के आयात को लेकर उपजा विरोध सही है, लेकिन वो इस बात से भी इत्तफाक रखते हैं कि हमें इससे पहले अपने देश के व्यावहारिक अड़चनों को दूर करना होगा। उसे कई स्पेशल इकोनॉमिक जोन तैयार करने होंगे ताकि हम पहले आत्मनिर्भर बनें। ऐसे जोन में सस्ती जमीन उपलब्ध कराकर सरकार उद्यमियों को जीएसटी में डिस्काउंट देकर, टैक्स हॉलिडे प्रदान करे, श्रम कानूनों को आसान बनाए तो इस तरह से धीरे-धीरे हम आत्मनिर्भर हो सकते हैं और चीन के ऊपर हमारी निर्भरता समाप्त हो सकती है। लेकिन इस काम में लंबा वक्त लगेगा। 1962 के बाद से हमारी सरकारों ने इस दिशा में काफी काम किया भी, लेकिन जबसे हमने नेहरू की मिक्स्ड इकनॉमी को छोड़कर पूंजीवादी आर्थिक उदारीकरण के दौर में प्रवेश किया और पिछले एक दशक में जिस तरह से डिजिटलाइजेशन के मकड़जाल में खुद को फंसाया, हमारी निर्भरता चीन पर लगातार बढ़ती गई। आर्थिक उदारीकरण और डिजिटलाइजेशन के दौर में जब शॉर्टकट तरीके से हम भारत के लोग चांद को छूने की कोशिश करने लगे तो इसी दौर में हमने अपनी आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति को भी भुला दिया। उसका नतीजा ये हुआ कि आज तमाम अंग्रेजी दवाओं के लिए चीनी कच्चा माल और वैक्सीनेशन के लिए बिल गेट्स की हैल्थ केयर कंपनियों पर हमारी निर्भरता उस स्तर पर पहुंच गई जहां से आत्मनिर्भर भारत की बात बेमानी सी लगती है। क्योंकि उसके पीछे की नीति और नीयत दोनों संदेह से परे नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)