

देवसागर सिंह / नई दिल्ली
आगामी बिहार विधानसभा चुनावों के लिए मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण ने चुनाव आयोग के लिए मुश्किल हालात पैदा कर दिए हैं। जनता के बढ़ते दबाव के चलते आयोग को अब अपने रुख में नरमी लानी पड़ी है। इसका पहला संकेत कल देखने को मिला, जब राज्य निर्वाचन कार्यालय ने घोषणा की कि जिन मतदाताओं के नाम ड्राफ्ट सूची में हैं, वे दावे और आपत्तियों की अवधि (1 अगस्त से 1 सितंबर) के दौरान भी आवश्यक दस्तावेज़ जमा कर सकते हैं। इससे आम मतदाताओं को काफी राहत मिली है।
अब सभी की निगाहें उन याचिकाओं पर टिकी हैं, जो इस पुनरीक्षण प्रक्रिया के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई हैं। याचिकाकर्ताओं में एनजीओ ‘एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (ADR)’ के साथ-साथ राजद और तृणमूल कांग्रेस के दो सांसद भी शामिल हैं।
चुनाव आयोग एक अर्ध-न्यायिक संस्था है, जिसे संविधान के तहत व्यापक अधिकार प्राप्त हैं और सर्वोच्च न्यायालय भी अधिकांश मामलों में इसकी स्वायत्तता को मान्यता देता है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि आयोग अपने निर्णय पर अडिग रहना चाहेगा। आयोग ने इस अभ्यास की कानूनी वैधता के लिए विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों का हवाला भी दिया है और यह स्पष्ट कर दिया है कि पुनरीक्षण कार्य समय पर पूरा कर लिया जाएगा ताकि हर योग्य मतदाता मतदान कर सके।
हालांकि यह उम्मीद की जा रही है कि कार्य समय पर पूरा होगा, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या सभी पात्र नागरिकों को समय पर मतदाता पहचान पत्र मिल पाएंगे? खासकर नए मतदाताओं के लिए जन्म प्रमाण पत्र (कभी-कभी माता-पिता के भी) और निवास प्रमाण पत्र प्राप्त करना गरीब और कमजोर वर्गों के लिए एक कठिन कार्य है। इसमें सरकारी अधिकारियों की भ्रष्टाचारपूर्ण भूमिका को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
सीमांचल क्षेत्र में स्थिति और भी जटिल है, जहाँ अल्पसंख्यकों की आबादी लगभग 40 प्रतिशत है। यहाँ दस्तावेजों की जांच और सत्यापन की प्रक्रिया अत्यंत कठोर हो सकती है, जिससे बड़ी संख्या में लोग वोट देने के अधिकार से वंचित हो सकते हैं।
अन्य क्षेत्रों में भी अति-पिछड़ी जातियों और वंचित वर्गों को दस्तावेज़ जुटाने में भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। कुछ अनुमानों के अनुसार, लगभग दो करोड़ वैध मतदाता इस प्रक्रिया से बाहर हो सकते हैं — यह एक चिंताजनक स्थिति है। अगर इतनी बड़ी संख्या में लोगों को मताधिकार से वंचित कर चुनाव कराए जाते हैं, तो लोकतंत्र की आत्मा ही प्रश्नचिह्न के घेरे में आ जाएगी।
चुनाव आयोग की यह जिम्मेदारी है कि केवल वैध भारतीय नागरिकों को ही मतदान का अधिकार मिले। लेकिन यह कार्य करते समय यह भी सुनिश्चित करना होगा कि असंख्य निर्दोष नागरिक बाहर न रह जाएं। घुसपैठियों (जैसे बांग्लादेशी या रोहिंग्या) का हवाला देकर इस तरह की जांच प्रक्रिया को केवल चुनाव के समय ही तेज कर देना संदेह को जन्म देता है। यदि यह वाकई राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा है, तो सरकार की नियमित मशीनरी को इस पर पहले से काम करना चाहिए।
इसी कारण विपक्ष इस गहन पुनरीक्षण प्रक्रिया को लेकर संदेह और आरोप लगा रहा है कि यह कवायद कहीं विपक्षी दलों के मतदाताओं को मताधिकार से वंचित करने का हथकंडा न बन जाए।
अब जबकि मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच चुका है, चुनाव आयोग की जिम्मेदारी बनती है कि वह लोगों की आशंकाओं को दूर करे और सुनिश्चित करे कि सभी पात्र मतदाता अपने लोकतांत्रिक अधिकार का प्रयोग कर सकें।
