चुनाव आयोग के लिए यह समय चुनौतियों से भरा हुआ है। यदि विश्वास की खाई न होती, तो यह प्रक्रिया कहीं अधिक सहज और पारदर्शी हो सकती थी। आयोग को पहले भी कई बार कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है, लेकिन मौजूदा स्थिति ने जैसी गंभीरता ले ली है, वैसी पहले कभी नहीं देखी गई।

देवसागर सिंह | नई दिल्ली

एक संवैधानिक संस्था के रूप में भारत का चुनाव आयोग ऐसी इकाई है जिसे सार्वजनिक विवादों से दूर रखा जाना चाहिए, क्योंकि इसके कार्य सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं, न कि किसी एक दल को। लेकिन मौजूदा हालात इसके विपरीत हैं — चुनाव आयोग और विपक्षी दलों के बीच खुली तकरार चल रही है।

इस तनाव का मूल कारण है विश्वास की कमी। विपक्ष यह मानता है कि आयोग एक स्वतंत्र संस्था न होकर सरकार का ही एक विस्तार बन चुका है। आयोग के कदम, भले ही वे संवैधानिक दायित्वों के तहत उठाए गए हों, उन्हें सत्ता पक्ष को लाभ पहुंचाने वाले प्रयास के रूप में देखा जाता है।

बिहार में मतदाता सूची का विशेष पुनरीक्षण (SIR) इसका ताजा उदाहरण है। यह प्रक्रिया ऐसे समय में शुरू की गई है जब कुछ ही महीनों बाद राज्य में विधानसभा चुनाव होने हैं। आयोग द्वारा आधार या मतदाता पहचान पत्र की बजाय जन्म प्रमाणपत्र और निवास प्रमाण के माँग पर विपक्ष ने तीखी आपत्ति जताई। आरोप है कि यह एक सुनियोजित प्रयास है ताकि लाखों लोगों को मताधिकार से वंचित किया जा सके।

संविधान और कानून के अनुसार आयोग का यह कदम सही हो सकता है, लेकिन सवाल यह उठता है कि यह कार्य पहले क्यों नहीं किया गया? यदि मतदाताओं को दस्तावेज़ जुटाने के लिए पर्याप्त समय दिया जाता, तो आज की स्थिति टल सकती थी। अब यह मामला न्यायालय में पहुँच चुका है जिससे परिस्थितियाँ और जटिल हो गई हैं।

ऐसा लगता है कि आयोग ने अपनी गलती को समझा है, तभी हाल ही में सभी राज्यों के मुख्य चुनाव अधिकारियों को राष्ट्रव्यापी SIR की तैयारी करने का निर्देश दिया गया है। अगले वर्ष जिन पांच राज्यों में चुनाव प्रस्तावित हैं, उनमें पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल शामिल हैं।

बिहार में मतदाता सूची को लेकर उठे विवाद से यह तय माना जा रहा है कि अंतिम सूची को विपक्ष चुनौती देगा। मीडिया में तो यह अनुमान लगाया जा रहा है कि राज्य में 70 लाख “भूतिया मतदाता” हैं, जिनके नाम सूची से हटाए जा सकते हैं। यह आशंका जताई जा रही है कि ये कथित फर्जी मतदाता बांग्लादेश और म्यांमार से आए अवैध घुसपैठिए हो सकते हैं। खासतौर पर सीमांचल क्षेत्र, जो बांग्लादेश सीमा से सटा है, पर संदेह जताया जा रहा है। यह वही इलाका है जहाँ राजद की मजबूत पकड़ है।

विपक्ष और आयोग के बीच अविश्वास की जड़ें हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों में दिखाई दी थीं, जब बीजेपी ने सभी पूर्वानुमानों को गलत साबित करते हुए जीत हासिल की। इसके बाद आयोग विपक्ष को यह भरोसा दिलाने में असफल रहा कि चुनाव निष्पक्ष हुए थे। बिहार चुनाव भी अब उसी पृष्ठभूमि में देखा जा रहा है। यह कहना उचित नहीं होगा कि हर बार विपक्ष ही सही होता है, लेकिन उसकी शंकाओं को नकारा भी नहीं जा सकता।

पश्चिम बंगाल की टीएमसी सरकार ने तो अभी से आशंका व्यक्त करनी शुरू कर दी है कि राज्य में भी SIR के बहाने फर्जी मतदाताओं को हटाया जाएगा। चूंकि राज्य की सीमा भी बांग्लादेश से लगी हुई है, इसलिए उसकी चिंता भी निराधार नहीं कही जा सकती। आयोग की जिम्मेदारी बनती है कि राज्य में निष्पक्ष तरीके से मतदाता पुनरीक्षण हो ताकि वैध मतदाता वंचित न रह जाएं

निस्संदेह, चुनाव आयोग के लिए यह समय चुनौतियों से भरा हुआ है। यदि विश्वास की खाई न होती, तो यह प्रक्रिया कहीं अधिक सहज और पारदर्शी हो सकती थी। आयोग को पहले भी कई बार कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है, लेकिन मौजूदा स्थिति ने जैसी गंभीरता ले ली है, वैसी पहले कभी नहीं देखी गई।

Trust deficit between Election Commission and Opposition main hurdle – The Indian Awaaz