
AMN / PIB
भारत में मानसून सिर्फ बारिश का मौसम नहीं, बल्कि यह देश की जीवनरेखा है. यह जटिल जलवायु प्रणाली भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और पारिस्थितिक ताने-बाने से गहराई से जुड़ी हुई है. करोड़ों किसानों के लिए, मानसून उनकी आजीविका तय करता है. भारत की लगभग 64% आबादी आज भी कृषि पर निर्भर है, और कृषि का भविष्य सीधे मानसून के प्रदर्शन पर निर्भर करता है. एक अच्छा मानसून भरपूर फसल, ग्रामीण समृद्धि और खाद्य सुरक्षा लेकर आता है, जबकि कमजोर मानसून सूखे, फसल के नुकसान और आर्थिक तनाव का कारण बन सकता है. यही वजह है कि मानसून को अक्सर भारत की जीवनरेखा कहा जाता है.
मानसून क्या है?
‘मानसून’ शब्द अरबी शब्द ‘मौसिम’ से आया है, जिसका अर्थ है ‘मौसम’. यह समुद्र और भूमि के बीच तापमान के अंतर के कारण हवा की दिशा में होने वाले मौसमी बदलाव को दर्शाता है. गर्मियों में, भूमि समुद्र की तुलना में बहुत तेजी से गर्म होती है, जिससे भूमि पर कम दबाव का क्षेत्र बन जाता है. समुद्र अपेक्षाकृत ठंडा रहता है और वहां उच्च दबाव का क्षेत्र बना रहता है. इस दबाव के अंतर के कारण समुद्र से भूमि की ओर ठंडी और नमी से भरी हवाएं चलती हैं, जिन्हें दक्षिण-पश्चिम मानसून कहा जाता है. जब ये हवाएं पहाड़ियों या पहाड़ों से टकराती हैं, तो वे ऊपर उठती हैं, ठंडी होती हैं और संघनित होकर वर्षा का कारण बनती हैं. सर्दियों में, यह प्रक्रिया उलट जाती है; हवाएं भूमि से समुद्र की ओर बहती हैं, जिसे उत्तर-पूर्व मानसून कहते हैं.
भारत में मानसून के प्रकार
भारत में मुख्य रूप से दो प्रकार के मानसून होते हैं: दक्षिण-पश्चिम मानसून और उत्तर-पूर्व मानसून.
दक्षिण-पश्चिम मानसून जून से सितंबर तक सक्रिय रहता है और भारत की वार्षिक वर्षा का लगभग 75% इसी से प्राप्त होता है. यह आमतौर पर जून के पहले सप्ताह में केरल में प्रवेश करता है और धीरे-धीरे पूरे देश में फैल जाता है. ये हवाएं दो मुख्य शाखाओं में बँट जाती हैं:
- अरब सागर शाखा, जो पश्चिमी तट, महाराष्ट्र, मध्य भारत और राजस्थान में वर्षा लाती है.
- बंगाल की खाड़ी शाखा, जो पूर्वोत्तर और उत्तरी भारत को भिगोती है. ये हवाएं पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर की पहाड़ियों या हिमालय से टकराकर भारी वर्षा कराती हैं, जिसे ‘पहाड़ी वर्षा’ (orographic rainfall) भी कहा जाता है. यह अवधि धान, कपास और गन्ने जैसी फसलों के लिए महत्वपूर्ण मानी जाती है.
उत्तर-पूर्व मानसून अक्टूबर से दिसंबर तक सक्रिय रहता है, जिसे अक्सर लौटता हुआ मानसून भी कहते हैं. इस दौरान, भूमि समुद्र की तुलना में तेजी से ठंडी होती है, जिससे भूमि पर उच्च दबाव और समुद्र पर निम्न दबाव बन जाता है. हवाएं अब उत्तर-पूर्व से दक्षिण-पूर्व दिशा में चलती हैं, बंगाल की खाड़ी से नमी उठाती हैं और तमिलनाडु, दक्षिणी आंध्र प्रदेश और श्रीलंका में वर्षा करती हैं. यह मानसून दक्षिण भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस क्षेत्र को दक्षिण-पश्चिम मानसून से अपेक्षाकृत कम वर्षा मिलती है.
मानसून को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक
भारतीय मानसून को कई कारक प्रभावित करते हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण है इंटर-ट्रॉपिकल कन्वर्जेंस जोन (ITCZ), जो भूमध्य रेखा के पास स्थित एक निम्न दबाव का क्षेत्र है. गर्मियों में, ITCZ उत्तर की ओर खिसकता है, जिससे समुद्र से नमी वाली हवाएं भारत की ओर खिंचती हैं और मानसून सक्रिय होता है. अक्टूबर के बाद, यह दक्षिण की ओर लौटता है, जिससे हवाओं की दिशा बदल जाती है और उत्तर-पूर्व मानसून शुरू होता है.
एक और महत्वपूर्ण कारक अल नीनो प्रभाव है, जो प्रशांत महासागर के पूर्वी हिस्से में समुद्री सतह के तापमान में असामान्य वृद्धि के कारण होता है. यह वैश्विक वायुमंडलीय परिसंचरण को बाधित करता है और भारत में मानसून को कमजोर या विलंबित कर सकता है. ऐतिहासिक रूप से, 1950 के बाद से 16 अल नीनो वर्षों में से 7 में मानसून सामान्य से काफी कमजोर रहा है. इसके विपरीत, ला नीना प्रभाव के दौरान, जब पूर्वी और मध्य प्रशांत महासागर की सतह ठंडी होती है, तो भारत में आमतौर पर सामान्य से अधिक वर्षा होती है. हालांकि, अत्यधिक वर्षा से बाढ़ और फसल क्षति का खतरा भी बढ़ जाता है.
भारत में वर्षा का वितरण
भारत में वर्षा का वितरण असमान है. औसतन, देश में सालाना लगभग 125 सेमी वर्षा होती है, लेकिन यह क्षेत्र-विशेष पर बहुत निर्भर करती है. पश्चिमी घाट और पूर्वोत्तर भारत जैसे क्षेत्रों में 400 सेमी से अधिक वर्षा होती है, जबकि राजस्थान, गुजरात, पंजाब और हरियाणा जैसे शुष्क क्षेत्रों में यह 60 सेमी से भी कम रहती है. सह्याद्रि के पूर्वी हिस्से और दक्कन के पठारी भाग वर्षा छाया क्षेत्रों में आते हैं, जहां मानसूनी हवाएं नहीं पहुंच पातीं. लेह और लद्दाख जैसे उच्च पर्वतीय क्षेत्र ठंडे रेगिस्तान हैं और वहां भी बहुत कम वर्षा होती है.
अर्थव्यवस्था पर मानसून का प्रभाव
भारतीय अर्थव्यवस्था पर मानसून का सीधा असर पड़ता है. देश की 55% कृषि भूमि आज भी वर्षा पर निर्भर है. यदि मानसून अच्छा रहता है, तो कृषि उत्पादन, ग्रामीण मांग, रोजगार और सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में वृद्धि होती है. लेकिन यदि मानसून कमजोर हो या देर से आए, तो सूखा, खाद्य महंगाई, फसल हानि और ग्रामीण संकट उत्पन्न हो सकता है. कभी-कभी अचानक आई भारी बारिश से बाढ़ और मिट्टी का कटाव भी होता है, जो भूमि की उर्वरता को कम करता है.
समय के साथ मानसून के व्यवहार में कई बदलाव देखे गए हैं. उदाहरण के लिए, 2015 में 36 मौसम संबंधी उपखंडों में से 16 में कम वर्षा हुई थी, जबकि 2024 में केवल 3 उपखंडों में ऐसा हुआ. 2024 में, मानसून पूरे देश में अपेक्षाकृत समान रहा और 78% जिलों में सामान्य या उससे अधिक वर्षा हुई. जून से सितंबर तक पूरे भारत में औसत 934.8 मिमी वर्षा हुई, जो 1971-2020 की दीर्घकालिक औसत (LPA) 868.6 मिमी का 108% है. क्षेत्रीय रूप से देखा जाए तो, मध्य भारत में 119%, दक्षिण भारत में 114% और उत्तर-पश्चिम भारत में 107% वर्षा हुई, जबकि पूर्व और पूर्वोत्तर भारत में यह 86% ही रही. जून की शुरुआत थोड़ी कमजोर रही, लेकिन जुलाई, अगस्त और सितंबर में मानसून ने ताकत पकड़ी और अगस्त महीने में सबसे अधिक वर्षा दर्ज की गई.
जलवायु परिवर्तन और मानसून
जलवायु परिवर्तन भारतीय मानसून को भी बदल रहा है. विशेषज्ञों के अनुसार, केरल, पूर्वोत्तर भारत और पूर्व-मध्य भारत में वर्षा घट रही है, जबकि महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तरी कर्नाटक जैसे क्षेत्रों में बढ़ रही है. 1950 से 2015 के बीच 150 मिलीमीटर से अधिक की अत्यधिक दैनिक वर्षा की घटनाओं में 75% वृद्धि दर्ज की गई है. साथ ही, शुष्क दिनों की संख्या भी बढ़ी है; इनकी आवृत्ति 1981 से 2011 के बीच 1951 से 1980 की तुलना में 27% अधिक थी. आजकल आधी वर्षा महज 20-30 घंटों के भीतर हो जाती है, जबकि बाकी समय हल्की से मध्यम बारिश होती है. इससे जल संचयन, मिट्टी की गुणवत्ता और कृषि उत्पादन पर बुरा असर पड़ता है.
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) की भूमिका
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD), जिसकी स्थापना 1875 में हुई थी, भारतीय मानसून के पूर्वानुमान और विश्लेषण में केंद्रीय भूमिका निभाता है. यह विभाग अप्रैल और जून में मानसून के दो चरणों में पूर्वानुमान जारी करता है, और मई में मानसून की शुरुआत की संभावित तिथि भी बताता है. पिछले चार वर्षों (2021 से 2024) में IMD की भविष्यवाणियां 100% सटीक रही हैं. 2021 में 101% वर्षा का पूर्वानुमान था और 100% वास्तविक वर्षा हुई. 2022 में 103% पूर्वानुमान के मुकाबले 106% वर्षा हुई. 2023 में 96% अनुमान था और 95% वास्तविक वर्षा हुई. 2024 में भी पूर्वानुमान 106% और वास्तविक वर्षा 108% रही.
इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि भारतीय मानसून सिर्फ एक मौसमी घटना नहीं, बल्कि यह भारत के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की आत्मा है. बदलते जलवायु परिदृश्य में इसकी सटीक समझ, प्रभावी पूर्वानुमान और व्यावहारिक रणनीतियों की आवश्यकता पहले से कहीं अधिक है. किसान से लेकर नीति-निर्माता तक, सभी को मानसून की अनिश्चितताओं के प्रति सतर्क और तैयार रहना होगा, तभी हम भविष्य के जल, कृषि और खाद्य संकटों से बच सकते हैं.
