अशफाक कायमखानी

हमारी पुरानी पिढी के लोग पच्चास-साठ सदस्यो वाला सामुहिक परीवार एक घर मे रहकर एक रसोई का खाना खाकर सभी तरह की परेशानियो को झटके मे दूर करते हुये लकड़ी व सूखे गोबर को मिट्टी के चुल्हे मे जलाकर मिट्टी के तवे पर रोटिया सेक कर परीवार के सारे लोग खाकर इतने मस्त थे कि नींद ना आने की बीमारी कोई जानता तक नही था। लेकिन आज “हम दो हमारे दो” होकर भी चिंता मे डूब कर नींद ना आने की शिकायत हर कोई करता रहता ही नही है बल्कि जीवन के अंतिम पडाव मे तो हम दोनो टोड कागले की तरह अकेले बैठे रहते है ।और हमारे दो हमे छोडंकर अन्यंत्र चले जाते है।

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                           photo- travelblog.org

अब तो नानी-दादी की कहानिया भी बच्चो को नसीब नही होती है।क्योकि छोटे छोटे बच्चो को होस्टल या आया के सहारे छोड़ने का रिवाज सा बन गया है। पहले महिला खूद व उनकी बहुऐ व पोत्र बहुवो का परीवार एक साथ सामुहिक रुप से आसानी से रह जाता था।वही आज वालदेन के कमाते कमाते दो भाइयो का परीवार वालदेन के साथ सामुहिक रहने को तैयार नही। पहले अकेली दस-बीस मेहमानो का कच्चे चुल्हे पर भोजन बनाकर उन्हे खिलाकर परीवार की शान समझती थी तो आज गैस पर तीन रोटी बनाकर मेहमाने को देने पर नाक-बोये सिकोड़ने लगती है। उस समय सुबह चठकर पच्चास लोगो का हाथ चक्की से आटा पिस कर रोजाना भोजन खिलाना आम बात थी तो आज पिसा पिसाये आटे से भी रोटी बनाने की बजाय बजार से बनी बनाई रोटी मंगाकर खाना शान समझने लगे है।

हम जब छोटे थे तो आने वाले हर मेहमान के मुहं से राम राम/ सलाम के बाद यह शब्द निकलते थे धीणा धापा काय का?, ढोकरा-ढोकरी सावल है? टाबरया मजा मे? कितरो दूध हो जावे? और आज आने वाला मेहमान कहता है कि बेटा का समाचार आवे है क्या? टाबर कदे कदास तो फोन करा है क्या? दुसरी तरफ पिता को अपने वालदेन के सामने बच्चो को गोद मे लेना दुभर होता था वही आज तो जन्म लेते ही पिता गोद मे बच्चो को लेने लगता है। पहले घर की बडी महिला समान रुप से सबको दूध-धही व घी डाला करती तो आज तो यह बडपन रहा ही नही है।
किसी शायर ने यू कहा है कि—–

वोह अंधेरे ही भले थे, जब कदम राह पर थे।
वोह रोशनी किस काम की, जो मंजिल से दूर ले गई।
हम बचपन मे घर-परीवार के बूजुर्गो से सुना करते थे कि लकड़ी खत्म होने को है।पशू रखना लोग छोड़ रहे है। आगे जाकर किसको जलाकर लोग रोटिया बनायगे। कैसे दुनिया चलेगी? अनेक सवाल बूजुर्गो के दिल मे उठते थे। लेकिन आवश्यक्ता अविश्कार की जननी होती है। लकड़ी-सूखे गोबर से चुल्हा जलना धिरे धिरे कम हुआ और गैस का धिरे धिरे उपयोग शुरु हुआ। शुरुवात मे तो अनेक अंधविश्वासो के चलते गैस के चुल्हे पर पकी रोटी खाने से झिझकते रहते थे।लेकिन आज तो गावं-देहात मे भी ज्यादातर घरो मे गैस चुल्हे का उपयोग होने लगा है।आज के बच्चो को तो सूखे गोबर को चुल्हे मे जलकर भोजन तैयार करने की बात एक काल्पनिक कहानी सी नजर आती है।

देखते देखते ही कितना बदल गये है हम।मुझे अच्छी तरह याद है कि लोग गैस कनेक्शन के लिये मारे मारे फिरते थे।सासंद को दो कनेक्शन के कूपन मिलते थे उनके पाने के लिये जी तोड़ सिफारीसे करवाने मे कोई कमी नही रखते थे।सिलेण्डर पाना तो ईद मनाना होता था। आज कितना बदल गया है कि गैस ऐजेन्सीया कनेक्सन देने के लिये घर घर प्रचार करके आफर तक दे रही है।फिर भी अनेक लोग अपनी मर्जी से पसंद की ऐजेंशी से ही गैस कनेक्सन लेते है।मुझे याद है कि सीकर मे एक सियासी लिडर को गैस ऐजेन्सी मिली तो उनके अनेक नजदिकी लोगो ने वोट की खातिर काफी लोगो के राशन कार्ड जमा कर लिये की सबको गैस कनेक्सन नेताजी दे देगी। हुवा यह कि अनेको के राशन कार्ड गूम हो गये तो अनेको को आखिर तक कनेक्सन भी नही मिला।जिससे लोगो मे भंयकर रोष फैला कि नेताजी चुनाव भी हार गये।आज के युवाओं को यह सब हकीकत अब काल्पनिक कथा नजर आती है।

मुझे याद है जब चाय मुश्किल से किसी के घर तब बनती थी जब घर मे किसी बीमार को ठीक होने के लिये बतौर दवाई के लिये पिलाई जाती थी। पहले मेहमान को छाछ या दूध पिलाया जाता था तो वही आज तो चाय से मेहमान ही नही हर शख्स का कलेजा जलाया जा रहा है। दूध का बडा हिस्सा पिने की बजाय चाय बनाने मे खर्च हो रहा है। जगह जगह चाय की दुकाने कायम है तो कोइ कहता है कि चाय वाला प्रधानमंत्री बन गया।