दो महान्‌ संत, श्री श्री परमहंस योगानन्द और स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी के महासमाधि दिवस

डॉ. मंजु लता गुप्ता

ईश्वर के प्रेम से सराबोर अनेक महान् संतों में से एक गुरु-शिष्य का दिव्य युगल, स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी (गुरु) और श्री श्री परमहंस योगानन्दजी (शिष्य), जिनका महासमाधि दिवस क्रमशः 9 मार्च और 7 मार्च को मनाया जाता है, अमरत्व के झरोखे से झाँकते हुए इस जगत् के ईश्वर प्रेमियों पर दृष्टि बनाए हुए हैं एवं उनका मार्गदर्शन एवं पोषण कर रहे हैं। दोनों ने ही ईश्वर से प्रेम करने के महान् लक्ष्य के साथ अपना जीवन जीया और संसार के समक्ष आदर्श उदाहरण प्रस्तुत कर अमर हो गए।


श्रीयुक्तेश्वरजी और योगानन्दजी का दिव्य मिलन, योगानन्दजी का अपने गुरु के आश्रम में दस वर्ष का कठोर प्रशिक्षण तथा संन्यास ग्रहण कर योगानन्दजी का बालक मुकुन्द से योगानन्द में परिवर्तन आदि कहानियों की शृंखला ‘योगी कथामृत’ में, जो कि एक अद्वितीय गौरव ग्रंथ के रूप में संसारभर में प्रसिद्ध है, में उपलब्ध है। यह पुस्तक पिछले 75 सालों से भी अधिक समय से, सहज और सरल रूप में शाश्वत सत्यों का मंच प्रदान कर इसे पढ़ने वालों में न केवल ईश्वर के प्रति प्रेम उपजाती आई है, अपितु उनको पाने की ललक जगाती है।


अपने प्रिय गुरु के टैलिपैथिक संदेश पर योगानन्दजी 1935-36 में अमरीका से भारत आए। तब अपने शरीर त्याग का अप्रत्यक्ष भान कराते हुए श्रीयुक्तेश्वरजी ने उनसे कहा था, “इस संसार में अब मेरा कार्य पूरा हो गया है; अब तुम्हें ही इसे आगे चलाना होगा….”
योगानन्दजी ने दृढ़ संकल्प किया, “समस्त मानवजाति में मैं यथाशक्ति इन मुक्तिदायक सत्यों को वितरित करूँगा जिन्हें मैंने अपने गुरु के चरणों में बैठकर प्राप्त किया है।” इसी संकल्प को पूरा करने के लिए उन्होंने पाठमाला, एक गृह अध्ययन श्रुंखला, जो आजकल के व्यस्त जीवन के लिए , पूर्णतया उपयुक्त है, की व्यवस्था की। क्रियायोग ध्यान पद्धति, जिसे ईश्वर प्राप्ति का वायुयान मार्ग बताया जाता है, की शिक्षाओं का प्रचार प्रसार करने हेतु उन्होने पहले भारत में 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया (वाईएसएस) तथा 1920 में अमरीका में सेल्फ़-रियलाईजेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की स्थापना की, और इस चुनौति भरे संसार में मानसिक सुख का एक मरूद्यान निर्मित किया।


योगानन्दजी ने प्रार्थना की थी : “हे प्रभु! मुझे आशीर्वाद दीजिए कि आपका प्रेम मेरी भक्ति की वेदी पर सदा आलोकित रहे और मैं आपके प्रेम को सभी हृदयों में जागृत कर सकूँ।” और 7 मार्च 1952 को योगानन्दजी की महासमाधि के दिन उनके शिष्यों ने अनुभव किया कि जो भी उनके कक्ष में प्रवेश करता, गहन दिव्य प्रेम के स्पंदनों को तथा जगन्माता की साक्षात उपस्थिति को अनुभव करता….ऐसा लगता था कि वे पूर्णतया जगन्माता के अधिकार क्षेत्र में हैं और जगन्माता उनकी उपरोक्त प्रार्थना को पूरा कर रही हैं।


योगानन्दजी जीवन एवं मृत्यु दोनों में ही महान् योगी थे। उनके देहावसान के कई सप्ताह बाद भी उनका अपरिवर्तित मुख अक्षयता की दिव्य कांति से देदीप्यमान था। फॉरेस्ट लॉन मेमोरियल पार्क, लॉस एंजेलिस के तत्कालिक निर्देशक (1952) श्री हैरी टी. रोवे ने कहा, “बीस दिन बाद भी उनके शरीर में किसी प्रकार की विकृति नहीं दिखाई पड़ी….27 मार्च को भी उनका शरीर उतना ही ताजा और विकार रहित दिखाई पड़ रहा था जितना मृत्यु की रात्रि को।”


भौतिक शरीर के मृत्यु उपरांत अनन्त ब्रह्म की सर्वव्यापकता में निर्बाध रूप से रहने वाले इन दोनों महान् संतों की पुण्य स्मृति के दिव्य स्पंदनों में डुबकी लगाकर आज भी इनके आशीर्वाद प्राप्त किए जा सकते हैं। अधिक जानकारी : yssofindia.org