समाज तभी सुरक्षित हो सकता है जब शराब को आकर्षण नहीं, बल्कि विनाश का संकेत माना जाए। उसकी पैकेजिंग चेतावनी दे, न कि इच्छा जगाए। उसका सेवन आधुनिकता नहीं, दुर्बलता माना जाए। ऐसे परिवर्तन के लिए कड़े कानूनों के साथ–साथ सामाजिक सजगता और पारिवारिक अनुशासन भी अनिवार्य हैं।

ललित गर्ग
देश की सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में मदिरा उत्पादों की पैकेजिंग पर एक गंभीर टिप्पणी की है—एक ऐसी टिप्पणी जो केवल कानूनी दख़ल नहीं, बल्कि समाज की चेतना को झकझोर देने वाली नैतिक चेतावनी भी है। न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि आकर्षक, चकाचौंध भरी और प्रलोभन जगाने वाली शराब की पैकेजिंग लोक–स्वास्थ्य, सांस्कृतिक मूल्यों और सामाजिक दायित्वों का घोर उल्लंघन है। चमकदार बोतलें, विदेशी शैली से प्रेरित डिज़ाइन, भड़कीले रंग और लुभावने डिब्बे—ये सब अब लोगों, विशेषकर युवाओं और महिलाओं, को शराब की ओर खींचने के औज़ार बन चुके हैं। यह बाज़ारू चमक–दमक न केवल एक नया और ख़तरनाक प्रलोभन है, बल्कि राष्ट्र की मानसिक, नैतिक और शारीरिक संरचना को भीतर ही भीतर खोखला करने वाली चाल भी है। कई बार तो शराब की पैकेजिंग जूस के पैकेट जैसी दिखाई देती है—मानो जन–स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना एक सामान्य व्यापारिक तरकीब हो।
जिस समय देश शराबजनित रोगों, दुर्घटनाओं, हिंसा, पारिवारिक विघटन और मानसिक अवसाद से जूझ रहा है, उस समय मदिरा को “फ़ैशनेबल” वस्तु के रूप में स्थापित करना अत्यंत घातक प्रवृत्ति है। शराब कंपनियों ने पैकेजिंग को आधुनिकता, प्रतिष्ठा और “लाइफ़स्टाइल” से जोड़ दिया है, जिससे युवा वर्ग इसे उपलब्धि का प्रतीक मानने लगा है। मनोवैज्ञानिक और सामाजिक दृष्टि से यह पैकेजिंग एक ऐसी छलना उत्पन्न करती है, जिसमें पीना परिष्कार का चिह्न प्रतीत होता है; जबकि सत्य यह है कि मदिरा शरीर और मन—दोनों के लिए घातक विष है। इसके दुष्परिणाम सर्वविदित हैं—लिवर सिरोसिस, हृदय रोग, रक्तचाप, कैंसर, मानसिक असंतुलन, अवसाद और अनिद्रा की भयानक तकलीफ़ें। शराब के नशे में वाहन चलाने से हर वर्ष हज़ारों लोग मौत के मुंह में समा जाते हैं। घरेलू हिंसा और अपराध तो बरसों से शराब से ही उपजते रहे हैं। ऐसे में शराब को ग्लैमर से लपेटकर प्रस्तुत करना, मानो जनता को धीरे–धीरे विनाश की ओर धकेलने जैसा है।
इसी कारण सर्वोच्च न्यायालय ने चिंता व्यक्त की है कि शराब की बोतलों की पैकेजिंग इस तरह न हो कि पीने के वास्तविक ख़तरों पर पर्दा पड़ जाए। स्वास्थ्य–चेतावनी अक्सर किनारे या नीचे छिपा दी जाती है। कंपनियाँ सावधानी–संदेशों को दबाकर दृश्य–आकर्षण को प्राथमिकता देती हैं—यह न केवल अनैतिक है बल्कि सार्वजनिक–स्वास्थ्य नीतियों की भावना के विपरीत है। जब तंबाकू पर बड़े और स्पष्ट चेतावनी–चित्र अनिवार्य हैं, तब शराब जैसी समान रूप से हानिकारक वस्तु पर कड़े नियम क्यों न लागू हों? प्रत्यक्ष विज्ञापन पर रोक के कारण शराब कंपनियाँ पैकेजिंग को ही परोक्ष विज्ञापन बना चुकी हैं। यह “सरोगेट प्रमोशन” युवाओं को नशे की ओर धकेलने का छिपा हुआ मार्ग है। अतः आवश्यक है कि शराब की पैकेजिंग साधारण, सादी और बिना आकर्षण वाली हो—ताकि वह “लक्ज़री उत्पाद” नहीं, बल्कि चेतावनी का प्रतीक लगे।
दुःखद तथ्य यह है कि शराब उद्योग का एकमात्र लक्ष्य बिक्री बढ़ाना है—समाज कितनी गहराई तक टूटता है, इससे उन्हें कोई लेना–देना नहीं। ऐसे में कठोर कानूनी हस्तक्षेप आवश्यक है। यदि चमकदार पैकेजिंग पर रोक लगेगी तो न केवल जन–जागरूकता बढ़ेगी, बल्कि नशामुक्ति की दिशा में समाज को एक स्वस्थ वातावरण भी मिलेगा। सरकारें भी मदिरा से प्राप्त राजस्व पर निर्भर हैं, जिसके कारण वे उद्योग के विरुद्ध खुलकर कदम नहीं उठा पातीं। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी उद्योग, सरकार, समाज और परिवार—सभी के लिए एक निर्णायक संकेत के रूप में देखी जानी चाहिए।
आज शराब का प्रसार केवल स्वास्थ्य–संकट नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक विघटन का भी प्रमुख कारण बन चुका है। महिलाओं के विरुद्ध होने वाली हिंसा, आर्थिक उत्पीड़न और मानसिक प्रताड़ना का बड़ा हिस्सा शराब से जुड़ा हुआ है। अध्ययन बताते हैं कि महिलाओं पर होने वाली लगभग आधी हिंसा के पीछे नशा प्रमुख कारण है। नशे में धुत पुरुष अक्सर नियंत्रण खो देते हैं और परिवारों को भय, असुरक्षा और अपमान की आग में झोंक देते हैं। यह समस्या किसी वर्ग, क्षेत्र या आय से सीमित नहीं—यह सर्वव्यापी है।
और अधिक चिंताजनक यह है कि शराब अब केवल बार–क्लबों तक सीमित नहीं रही। विवाह, जन्मदिन, दफ़्तर के आयोजन, त्योहारों और छोटी–बड़ी सामाजिक बैठकों तक में इसका प्रसार हो गया है। इसे “सामाजिक अनिवार्यता” और “आधुनिक पहचान” के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। युवा जब बड़ों को खुलकर पीते देखते हैं तो इसे सामान्य मानने लगते हैं—और वही से नशे की शुरुआत हो जाती है। विद्यालय–कॉलेज तक शराब पहुँच गई है; फैशन, दबाव और पैकेजिंग के छलावे में युवा पीढ़ी शारीरिक और मानसिक रूप से दुर्बल होती जा रही है। शिक्षा, करियर, और एकाग्रता—सब कुछ प्रभावित हो रहा है।
समाज तभी सुरक्षित हो सकता है जब शराब को आकर्षण नहीं, बल्कि विनाश का संकेत माना जाए। उसकी पैकेजिंग चेतावनी दे, न कि इच्छा जगाए। उसका सेवन आधुनिकता नहीं, दुर्बलता माना जाए। ऐसे परिवर्तन के लिए कड़े कानूनों के साथ–साथ सामाजिक सजगता और पारिवारिक अनुशासन भी अनिवार्य हैं। सर्वोच्च न्यायालय की चेतावनी इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है; अब यह सरकार और समाज की जिम्मेदारी है कि इसे वास्तविक सुधार में बदला जाए।
