Last Updated on November 7, 2025 7:07 pm by INDIAN AWAAZ

अफ़रीन हुसैन
बिहार एक बार फिर चुनावी समर में उतर चुका है। राजनीतिक दलों की गतिविधियाँ तेज़ हैं, जनसभाओं की गहमागहमी लौट आई है, और हर पार्टी अपनी बात बुलंद आवाज़ में रखने को तत्पर है। लेकिन इस शोरगुल में वही पुराने नारे, वही परिचित चेहरे और वही दोहराए गए मुद्दे सुनाई देते हैं। जनता एक बार फिर उम्मीदों के साथ लोकतंत्र की ओर देख रही है, पर सवाल यह है — क्या इस बार कुछ बदलेगा? क्या बिहार की राजनीति नारों से निकलकर परिणामों की ओर बढ़ेगी?
चुनावी विमर्श: शोर में सच्चाई की खोज
बिहार के राजनीतिक परिदृश्य पर हर दल अपनी विचारधारा के अनुसार नारे बुलंद कर रहा है। भाजपा राष्ट्रवाद की गर्जना में, राजद सामाजिक न्याय की भावनाओं में, और नीतीश कुमार राजनीतिक संतुलन की राह पर चल रहे हैं। लेकिन बेरोज़गारी, महंगाई और युवाओं के पलायन जैसे वास्तविक मुद्दे हाशिए पर हैं। जब युवा रोज़गार मांगते हैं, तो बहस हलाल मांस पर होती है; जब महंगाई बढ़ती है, तो पाकिस्तान चर्चा का विषय बन जाता है।
गिरिराज सिंह: राजनीति या उत्तेजना?
गिरिराज सिंह जैसे नेता चुनावी माहौल में भड़काऊ बयानों के ज़रिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं। उनकी मंत्रालय वस्त्रों से जुड़ी है, लेकिन उनकी भाषा अक्सर सांप्रदायिक रंग लिए होती है। हर बार जब वे सीमाएं लांघते हैं, तो वही पुरानी औपचारिक माफ़ी आती है — “अगर किसी की भावनाएं आहत हुई हों…” जैसे नफ़रत कोई अनजाने में हुई छींक हो।
तेजस्वी यादव: उम्मीद का चेहरा या एक और मुखौटा?
राजद के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव इस बार युवाओं की आशा बनकर उभरे हैं। उनका वादा — “हर परिवार को एक नौकरी” — जनता का ध्यान आकर्षित कर रहा है। लेकिन सवाल यह है — क्या यह वादा हकीकत बन पाएगा? या यह भी चुनावी प्रचार का हिस्सा बनकर रह जाएगा? उनके माता-पिता — लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी — के कार्यकाल भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहे। तेजस्वी को खुद को उनसे अलग साबित करना होगा।
प्रशांत किशोर: रणनीति से नेतृत्व तक
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर इस बार स्वयं मैदान में हैं। उनका घोषणापत्र पाँच प्रमुख वादों पर आधारित है — रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य, भ्रष्टाचार-मुक्त शासन और आधारभूत संरचना का विकास। सुनने में यह प्रभावशाली लगता है, लेकिन सवाल यह है — क्या ये वादे ठोस योजनाएं हैं या केवल प्रस्तुति की स्लाइड्स? बिहार की जनता ऐसे वादे पहले भी सुन चुकी है — फर्क सिर्फ चेहरों का है।
नीतीश कुमार और भाजपा: नेतृत्व या प्रतीक?
भाजपा अब भी नीतीश कुमार को अपना चेहरा बनाकर प्रस्तुत कर रही है, लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा है कि असली निर्णय कहाँ से होता है — पटना से या नागपुर से? नीतीश कुमार अक्सर जनहित के मुद्दों पर यह कहकर बच निकलते हैं — “लोगों को स्वयं जागरूक होना चाहिए।” ऐसे में सवाल उठता है — सरकार की भूमिका क्या रह जाती है?
महिला मतदाता: समझ और व्यंग्य
चुनाव से ठीक पहले महिलाओं को ₹10,000 देने का वादा किया गया। कई महिलाएं व्यंग्यात्मक अंदाज़ में कहती हैं — “अगर पैसा आया तो ले लेंगे, लेकिन वोट हमारा है।” इस कथन में समझ भी है और पीड़ा भी — क्योंकि महिलाओं को अक्सर केवल चुनावी मौसम में याद किया जाता है।
घोषणापत्र या कल्पना?
इस वर्ष के घोषणापत्र किसी परीकथा जैसे प्रतीत होते हैं। राजद कहती है — “हर शिक्षित युवा को नौकरी,” भाजपा कहती है — “ऐसा विकास देंगे कि आंखें चकाचौंध हो जाएं,” और हर पार्टी भ्रष्टाचार के अंत की बात करती है। लेकिन करोड़ों रुपये केवल वादे करने में खर्च होते हैं। हर पाँच साल में नेता गरीबों को फिर से “खोज” निकालते हैं — जैसे वे कोई पुरातात्विक अवशेष हों।
मुस्लिम मतदाता: संख्या में बड़े, सत्ता में छोटे
बिहार की जनसंख्या में मुसलमान लगभग 19% हैं, लेकिन राजनीतिक प्रतिनिधित्व नगण्य है। हर चुनाव में उन्हें “महत्वपूर्ण” कहा जाता है, लेकिन चुनाव के बाद भुला दिया जाता है। यदि 2% यादव मुख्यमंत्री बन सकते हैं, तो 19% मुसलमान क्यों नहीं? उत्तर संख्या में नहीं, राजनीतिक रणनीति में है। वे प्रतिनिधि नहीं, केवल वोट बैंक हैं।
भ्रष्टाचार: बिहार की असली महामारी
यहाँ भ्रष्टाचार अपराध नहीं, बल्कि व्यवस्था है। जन्म प्रमाणपत्र से मृत्यु प्रमाणपत्र तक — हर दस्तावेज़ की कीमत है। सरकार “Ease of Doing Business” की बात करती है, लेकिन “ईमानदारी से जीने की सुविधा” का कोई ज़िक्र नहीं। यदि रिश्वत कोई ओलंपिक खेल होता, तो बिहार हर वर्ष स्वर्ण पदक जीतता।
युवाओं का पलायन: सपनों की हिजरत
जहाँ उद्योगपति गुजरात जाते हैं, वहीं मज़दूर बिहार छोड़ते हैं। यहाँ युवा डिग्रियाँ लेकर घर नहीं लौटते — वे दूसरे राज्यों की ओर जाते हैं, सपनों को साकार करने नहीं, पेट भरने के लिए। प्रधानमंत्री कहते हैं — “भारत चमक रहा है।” शायद वे सही कहते हैं — लेकिन नहीं उन लोगों के लिए जो अंधेरे में खड़े हैं।
चुनाव: लोकतंत्र या मनोरंजन?
बिहार के चुनाव अब लोकतंत्र नहीं, मनोरंजन बन चुके हैं। हर पाँच साल — वही चेहरे, नए वादे, और पुरानी निराशा। मतदाता बिना पारिश्रमिक के कलाकार बन चुके हैं — जिन्हें वादे मिलते हैं, परिणाम नहीं।
निष्कर्ष: बिहार का प्रश्न
बिहार एक बार फिर एक नैतिक चौराहे पर खड़ा है — जागरूकता और उदासीनता के बीच, उन लोगों के बीच जो सपने देखते हैं और जो सपने बेचते हैं। जनता थक चुकी है। उन्हें नारे नहीं, परिणाम चाहिए। उनका एक ही प्रश्न है —
क्या चुनाव के बाद सरकार जागेगी?
या फिर कुंभकरण की नींद में चली जाएगी?
जब तक इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा —
बिहार वही रहेगा: वादों की भूमि, जो अब भी अपनी मुक्ति की प्रतीक्षा कर रही है।
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