गीता जयन्ती पर विशेष

अलकेश त्यागी
सिद्धपुरुष मानवता को कुछ शाश्वत सत्य दिए बिना संसार से नहीं जाते। प्रत्येक मुक्तात्मा ईश्वरप्राप्ति का कुछ न कुछ प्रकाश व प्रभाव दूसरों पर छोड़कर जाती है। इसी दायित्व को ‘योगी कथामृत’ के लेखक, भारत में योगदा सत्संग सोसायटी (वाईएसएस) तथा अमरीका में सेल्फ-रियललाईजेशन फैलोशिप (एसआरएफ) जैसी संस्थाओं के संस्थापक, श्री श्री परमहंस योगानंदजी ने बड़ी खूबसूरती से निभाया है। उन्होंने गीता की अद्भुत व्याख्या कर आधुनिक विश्व को एक नई दृष्टि दी है।


परमहंस योगानंदजी कृत ‘गॉड टॉक्स विद अर्जुन – द भागवत गीता’ पहली बार 1995 में अँग्रेजी में प्रकाशित हुई लेकिन अल्पकाल में ही इसे 20वीं सदी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रंथ माना गया। इस का हिंदी संस्करण ‘कृष्ण-अर्जुन संवाद – भगवद गीता’ नाम से उपलब्ध है।


योगानंदजी ने गीता की इस टीका पर 1932 में ही काम शुरू कर दिया था (एसआरएफ मैगजीन में प्राथमिक श्रृंखला शुरू करके) जो 1952 तक पूर्ण हुआ। बोलकर गीता पर टीका लिखवाते समय योगानंदजी की अवस्था के बारे में उनके शिष्य ने लिखा है “वह कुछ समय के लिए अहाते में आए। उनकी आंखों में अपरिमित एकाकीपन था और उन्होंने मुझसे कहा; तीनों लोक मुझमें बुलबुले की तरह तैर रहे हैं।” एक अन्य संन्यासी बताते हैं कि जिस कमरे में गुरुजी काम करते थे, “उस कक्ष के स्पंदन अविश्वसनीय थे। ऐसा जैसे कि ईश्वर में प्रवेश कर रहे हो।” योगानंदजी ने उस समय एक शिष्य को लिखा था “मैं पूरे दिन शास्त्रीय व्याख्यायें और पत्र संसार के प्रति बंद लेकिन स्वर्ग में सदैव खुली रहने वाली आंखों से बोल कर लिखवाता हूँ।”


अपने लेखन कार्यों की अंतिम परिणति के लिए योगानंदजी अमेरिकी शिष्या तारामाता पर निर्भर करते थे। उन्हें उस समय की सर्वोत्तम संपादक बताते हुए कहते “अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वरजी के अलावा किसी और के साथ भारतीय दर्शन पर चर्चा में इतना आनंद नहीं मिला जितना लॉरी (तारामाता) के साथ।” लेकिन अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने एक अन्य शिष्या मृणालिनीमाता को प्रशिक्षित करना आरंभ कर दिया। एक बार उन्होंने कहा, “मुझे लॉरी की चिंता है, उनका स्वास्थ्य उन्हें मेरे लेखन कार्य को समाप्त नहीं करने देगा।” इस पर मृणालिनीमाता ने पूछा “पर गुरुजी कौन इस काम को कर सकता है?” योगानंदजी ने कहा “तुम इसे करोगी।” और 1952 में योगानंदजी की महासमाधि के 43 वर्ष बाद तथा सेल्फ-रियलाईजेशन फैलोशिप की 75वीं वर्षगांठ पर 1995 में मृणालीनी माताजी की देखरेख में यह कार्य पूरा हुआ।


इस ग्रंथ की भूमिका में योगानंदजी ने बताया है कि कैसे उनके गुरु श्रीयुक्तेश्वरजी ने उनके द्वारा, बुद्धि विलास द्वारा नहीं बल्कि कृष्ण और अर्जुन के बीच हुए वास्तविक संवाद को जैसा व्यासजी ने समझा तथा स्वयं योगानंदजी के समक्ष प्राकट्य के आधार पर, गीता पर टीका लिखने की भविष्यवाणी की थी।


इस टीका में परमात्मा (कृष्ण) और आदर्श शिष्य की जीवात्मा (अर्जुन) के बीच हुए संवाद की आध्यात्मिक विवेचना है। योगानंदजी कहते हैं कि इन पृष्ठों में व्यक्त आध्यात्मिक समझ तक व्यास के साथ समस्वर होकर तथा अर्जुन की आत्मा बनकर परमात्मा के साथ संवाद कर पहुंचे हैं। वह कहते हैं कि परिणाम स्वयं बोलेगा कि यह व्याख्या नहीं है बल्कि परमात्मा द्वारा समस्वर हुई आत्मा में उड़ेले गए ज्ञान का वृतांत है।


गहन आध्यात्मिक व मनोवैज्ञानिक सत्यों को खोलती यह पुस्तक मानवीय अस्तित्व के किसी पक्ष को अनछुआ नहीं छोड़ती। आध्यात्मिकता को विज्ञान की वेदी पर प्रतिष्ठित करती यह पुस्तक वर्तमान और आगामी युगों की अमूल्य धरोहर है।
योगानंदजी को ईश्वर के दिव्यप्रेम का अवतार मानकर उन्हें प्रेमावतार भी कहा जाता है। इस टीका में पाठक उसी दिव्यप्रेम का चुंबकीय आकर्षण अनुभव करेंगे।