प्रवीण कुमार

अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प अक्सर सुर्खियों में रहते हैं, कभी अपनी घरेलू नीतियों के कारण तो कभी अपने तीखे बयानों के कारण। लेकिन जब ट्रम्प ने यह दावा किया कि वह नोबेल शांति पुरस्कार के हक़दार हैं तो यह न सिर्फ एक राजनीतिक बयान था, बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय बहस का विषय भी बन गया। हालांकि सर्बिया-कोसोवो समझौता निश्चित रूप से एक उल्लेखनीय उपलब्धि थी और इसके लिए उन्हें 2020 में नोबेल पुरस्कार के लिए नामित भी किया गया था लेकिन भाग्य ने ट्रम्प का साथ नहीं दिया।

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के इस दावे के पीछे उनके पिछले कार्यकाल के दौरान किए गए कई कूटनीतिक प्रयास हैं। इनमें से कुछ सफल रहे, कुछ आंशिक और कई तो पूरी तरह विफल रहे। हम इस लेख में ट्रम्प द्वारा मध्यस्थता या हस्तक्षेप किए गए कुछ प्रमुख अंतरराष्ट्रीय संघर्षों की गहराई से समीक्षा करेंगे और जानेंगे कि क्या इन उपलब्धियों के आधार पर ट्रम्प वाकई नोबेल शांति पुरस्कार के हकदार हैं?

अर्मेनिया-अजरबैजान संघर्ष
साल 2020 में अर्मेनिया और अजरबैजान के बीच नागोर्नो-कराबाख क्षेत्र को लेकर भीषण युद्ध छिड़ा था। यह संघर्ष दशकों पुराना है, लेकिन 2020 में यह बड़ी हिंसा में तब्दील हो गया था। तब ट्रम्प प्रशासन ने दोनों देशों से अपील की थी कि वे युद्ध विराम करें और वार्ता के जरिये समाधान खोजें। अमेरिका ने युद्ध विराम की कोशिश के तहत 23 अक्टूबर 2020 को दोनों देशों के विदेश मंत्रियों को वॉशिंगटन बुलाया, लेकिन यह युद्ध विराम ज्यादा वक्त तक टिक नहीं सका। हालांकि अमेरिका ने शांति की कोशिश की जरूर, परंतु इस संघर्ष में निर्णायक भूमिका रूस ने निभाई जिसने संघर्ष को खत्म करवाया। कहने का मतलब यह कि डोनाल्ड ट्रम्प की पहल प्रभावशाली नहीं रही, लेकिन एक बड़ा कूटनीतिक प्रयास जरूर था।

कांगो और रवांडा संघर्ष
अफ्रीकी देश कांगो और रवांडा के बीच संबंधों में अक्सर तनाव रहा है, विशेषकर कांगो के पूर्वी हिस्से में सक्रिय विद्रोही समूहों को लेकर। ट्रम्प प्रशासन ने अफ्रीकी देशों में स्थिरता बनाए रखने के लिए सुरक्षा सहायता और आतंकवाद विरोधी कार्यक्रमों में हिस्सा लिया। उन्होंने कांगो और रवांडा को आपसी सहयोग बढ़ाने के लिए प्रेरित भी किया, लेकिन कोई बड़ा शांति समझौता नहीं हो सका। यह प्रयास शांतिप्रिय रहा लेकिन था बेहद सीमित प्रभाव वाला। कोई ठोस परिणाम नहीं निकला।

इज़राइल–ईरान तनाव
ईरान और इज़राइल के बीच दशकों से तनाव चला आ रहा है, खासकर परमाणु कार्यक्रम और क्षेत्रीय प्रभाव को लेकर। अपने पिछले कार्यकाल में डोनाल्ड ट्रम्प ने 2018 में अमेरिका को ईरान परमाणु समझौते से बाहर निकाल लिया था और ईरान पर “अधिकतम दबाव” की नीति अपनाई थी। इसके तहत अमेरिका ने ईरान पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध भी लगाए थे। हालांकि यह कोई शांति स्थापना की पहल नहीं थी, बल्कि एकतरफा दबाव की नीति थी। इसके चलते ईरान और इज़राइल के बीच तनाव और बढ़ गया और क्षेत्र में सैन्य टकराव का खतरा बढ़ गया। यहां डोनाल्ड ट्रम्प की शांति की पहल बुरी तरह से विफल रही।

भारत-पाकिस्तान संघर्ष
भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर को लेकर दशकों से संघर्ष जारी है। ट्रम्प ने 2019 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था कि भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें कश्मीर पर मध्यस्थता करने के लिए कहा है। ट्रम्प की यह पहल राजनयिक रूप से असंगत थी और भारत की संप्रभुता के उल्लंघन के तौर पर देखी गई। पाकिस्तान ने जरूर इस बयान का स्वागत किया था, लेकिन भारत ने इसे तब सिरे से नकार दिया था। हाल ही में पहलगाम में आतंकी घटना के बाद जब भारत ने पाकिस्तान पर हमला किया था तो दोनों देशों के बीच सीजफायर से ठीक पहले डोनाल्ड ट्रम्प ने ट्वीट कर दुनिया को यह संदेश देने की कोशिश की थी कि उनकी पहल से ही सीजफायर पर सहमति बनी। उसके बाद दर्जनों दफे ट्रम्प ने अपने इस बयान को दोहराया।

थाईलैंड-कंबोडिया सीमा विवाद
थाईलैंड और कंबोडिया के बीच सीमा पर विवाद विशेष रूप से प्रेह विहेयर टेम्पल के इलाके को लेकर रहा है। ट्रम्प प्रशासन ने इस मामले में सीधा हस्तक्षेप नहीं किया, लेकिन दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों (ASEAN) के साथ संबंध मजबूत करने की दिशा में काम किया। इस संघर्ष में ट्रम्प या अमेरिका की कोई प्रभावी भूमिका नहीं थी। शांति स्थापना में अमेरिका का योगदान प्रत्यक्ष रूप से नगण्य रहा।

इथियोपिया-मिस्र जल विवाद
ग्रैंड इथियोपियन रेनेसांस डैम (GERD) को लेकर इथियोपिया, मिस्र और सूडान के बीच बड़ा जल विवाद रहा है। मिस्र को डर था कि डैम के कारण नील नदी में पानी की आपूर्ति प्रभावित होगी। अमेरिका ने इस मुद्दे पर मध्यस्थता की पेशकश की और वॉशिंगटन में कई दौर की बातचीत भी आयोजित करवाई। मिस्र ने समझौते के मसौदे पर हस्ताक्षर किए, लेकिन इथियोपिया ने इसे खारिज कर दिया। हालांकि ट्रम्प प्रशासन की पहल काफी हद तक सकारात्मक थी, लेकिन अंतिम परिणाम नहीं निकल सका। लेकिन ट्रम्प के इस प्रयास को एक कूटनीतिक उपलब्धि के तौर पर देखा जा सकता है।

सर्बिया-कोसोवो आर्थिक सामान्यीकरण
साल 1999 में युद्ध के बाद सर्बिया और कोसोवो के बीच संबंध बेहद तनावपूर्ण रहे हैं। कोसोवो ने 2008 में खुद को स्वतंत्र राष्ट्र घोषित कर दिया, जिसे सर्बिया मान्यता नहीं देता। साल 2020 में ट्रम्प प्रशासन ने सर्बिया और कोसोवो के नेताओं को व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया। इसके बाद दोनों देशों के बीच आर्थिक सामान्यीकरण समझौता हुआ। इस समझौते में न सिर्फ व्यापार और आवागमन को सुचारू बनाने के प्रावधान थे, बल्कि इज़राइल के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने की कोसोवो की घोषणा को भी शामिल किया गया। कहा जाता है कि यह ट्रम्प प्रशासन की सबसे ठोस और प्रभावशाली कूटनीतिक सफलता रही और यही वजह थी कि 2020 में ट्रम्प को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामित भी किया गया था।

ट्रम्प की अन्य शांति पहल
इज़राइल और कई अरब देशों मसलन यूएई, बहरीन, मोरक्को, सूडान के बीच 2020 में हुए समझौते ट्रम्प की सबसे बड़ी कूटनीतिक सफलताओं में से एक थे। इसे अब्राहम समझौते (Abraham Accords) के नाम से भी जाना जाता है। यही वो उपलब्धि है जो ट्रम्प को नोबेल शांति पुरस्कार की दावेदारी में सबसे ज्यादा मजबूती देती है। इसके अलावा किम जोंग उन के साथ ट्रम्प की ऐतिहासिक मुलाकातें चर्चा में रहीं, हालांकि अंततः कोई ठोस समझौता नहीं हो सका।

तो इतना कुछ जानने और समझने के बाद बड़ा सवाल यही कि क्या ट्रम्प वाकई नोबेल शांति पुरस्कार के हकदार हैं? निश्चित तौर पर डोनाल्ड ट्रम्प के पिछले कार्यकाल के दौरान कई ऐसी घटनाएं हुईं जिनमें उन्होंने शांति स्थापना के लिए प्रयास किए जरूर। अब ये अलग बात है कि अधिकांश संघर्षों के समाधान में उनका योगदान सीमित या अप्रभावी रहा। कई मामलों में उनकी नीतियां उल्टे तनाव बढ़ाने वाली साबित हुईं जैसे ईरान नीति।

कुल मिलाकर संपूर्णता में देखें तो ट्रम्प अभी भी उन नेताओं की श्रेणी में नहीं आते, जिन्होंने दुनिया में स्थायी और व्यापक शांति स्थापित की हो। डोनाल्ड ट्रम्प का नोबेल शांति पुरस्कार पाने का दावा निश्चित रूप से दुनिया को चौंकाया है क्योंकि नोबेल शांति पुरस्कार केवल शांति के प्रयासों से नहीं, बल्कि स्थायी, समावेशी और व्यापक प्रभाव से जुड़ा होता है और इस कसौटी पर अगर डोनाल्ड ट्रम्प को कसा जाए तो वह लक्ष्य से कोसों दूर हैं। (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)