
प्रवीण कुमार
भारत की सुप्रीम कोर्ट ने 30 अप्रैल 2025 को एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा कि डिजिटल एक्सेस भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में निहित जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का अनिवार्य हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न सिर्फ तकनीकी पहुंच को कानूनी मान्यता देता है, बल्कि डिजिटल युग में जी रहे नागरिकों की गरिमा, स्वायत्तता और समान भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है। भारत के डिजिटल भविष्य को अधिक समान, समावेशी और संवैधानिक बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
न्यायमूर्ति आर. महादेवन और न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला की पीठ ने यह फैसला दो ऐसी महिलाओं की याचिका पर सुनाया जो तेजाब हमले की शिकार हैं और 100% दृष्टिहीनता का सामना कर रही हैं। उन्हें बैंक खाता खोलने और सिम कार्ड प्राप्त करने में डिजिटल केवाईसी की ‘लाइव फोटो’ प्रक्रिया की वजह से कठिनाई हो रही थी।
याचिका पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में साफ तौर पर कहा कि डिजिटल एक्सेस देश के प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक अधिकार है। माननीय अदालत ने देश की सरकार, आरबीआई और अन्य एजेंसियों को समावेशी और सुलभ डिजिटल प्रणाली विकसित करने के निर्देश देते हुए कहा कि दृष्टिहीन और श्रवण बाधित व्यक्तियों के लिए ब्रेल, वॉइस-इनेबल्ड और गैर-बायोमेट्रिक विकल्प विकसित करने की आवश्यकता है। साथ ही पेपर-बेस्ड केवाईसी विकल्प को भी जारी रखने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया है।
कोर्ट ने यह भी कहा कि आज शासन, स्वास्थ्य, शिक्षा, और आर्थिक अवसरों तक पहुंच का सबसे बड़ा जरिया डिजिटल प्लेटफॉर्म बन चुका है। इसलिए यह आवश्यक है कि संविधान के मौलिक अधिकारों की व्याख्या डिजिटल यथार्थ के संदर्भ में की जाए। वास्तविक समानता (Substantive Equality) का अर्थ है कि हर नागरिक को डिजिटल संसाधनों का समान और न्यायपूर्ण उपयोग सुनिश्चित किया जाए। न्यायालय ने केंद्र सरकार और संबंधित एजेंसियों को निर्देश दिया है कि वे दिव्यांगजनों, ग्रामीण आबादी, वरिष्ठ नागरिकों, भाषाई अल्पसंख्यकों और आर्थिक रूप से वंचित वर्गों के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म तक पहुंच को सुलभ और समावेशी बनाएं।
दरअसल, भारत में डिजिटल सेवाएं तेजी से जीवन के हर क्षेत्र – शिक्षा, स्वास्थ्य, बैंकिंग और शासन में प्रवेश कर रही हैं। लेकिन दिव्यांगजन, ग्रामीण क्षेत्रों के लोग, वरिष्ठ नागरिक और भाषाई अल्पसंख्यक आज भी डिजिटल दुनिया से अलग-थलग ज़िंदगी को जी रहे हैं। सर्वोच्च अदालत का यह फैसला दर्शाता है कि अब डिजिटल पहुंच की बात सिर्फ सुविधा तक सीमित नहीं रही, बल्कि यह समानता और गरिमा का संवैधानिक मुद्दा बन चुकी है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का नीतिगत और व्यावहारिक प्रभाव यह पड़ेगा कि सरकार को अब डिजिटल समावेश से संबंधित योजनाएं जैसे भारतनेट, पीएम डिजिटल साक्षरता अभियान और अन्य को गंभीरता से लागू करना होगा। बैंक और टेलीकॉम कंपनियों को गैर-बायोमेट्रिक केवाईसी के समावेशी विकल्प अपनाने होंगे। टेक कंपनियों को अपने ऐप्स और वेबसाइट को accessibility-friendly (जैसे वॉइस-नेविगेशन, स्क्रीन रीडर सपोर्ट आदि) बनाना होगा।
देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद डिजिटल खाई को पाटना अब सिर्फ नीति का मामला नहीं, बल्कि एक संवैधानिक जरूरत बन गई है। गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार 21वीं सदी में डिजिटल दुनिया में भागीदारी के बिना अधूरा है। यह निर्णय भारत में डिजिटल समानता की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है। यह स्पष्ट संदेश देता है कि तकनीक का उद्देश्य केवल सुविधा नहीं, समावेश और सशक्तिकरण होना चाहिए।
लिहाजा नीति-निर्माता, तकनीकी कंपनियां और संस्थाएं मिलकर देश में ऐसा डिजिटल तंत्र विकसित करें जो हर नागरिक को बराबरी के साथ जोड़ सके, न कि उसे और अधिक अलग-थलग कर दे। जैसे-जैसे देश ‘डिजिटल इंडिया’ की ओर बढ़ रहा है, यह जरूरी है कि कोई भी पीछे न छूटे – न शारीरिक कारणों से, न सामाजिक कारणों से।