Last Updated on December 30, 2025 8:50 pm by INDIAN AWAAZ
नए वर्ष की दहलीज़ पर आत्ममंथन अत्यावश्यक है। यदि हम आज परिवार को प्राथमिकता नहीं देंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ सुविधाएँ तो पाएँगी, पर रिश्तों की गर्माहट नहीं। परिवार केवल साथ रहने का नाम नहीं, बल्कि साथ महसूस करने का भाव है। यदि यह प्रक्रिया टूटती है, तो समाज की नींव ही कमज़ोर पड़ जाएगी। इसलिए 2026 में प्रवेश करते हुए हमें यह संकल्प लेना होगा कि तकनीक का उपयोग जीवन को सरल बनाने के लिए करें, रिश्तों की जगह लेने के लिए नहीं; करियर की ऊँचाइयाँ छूते हुए भी परिवार की जड़ों को सींचते रहें।

ललित गर्ग
आधुनिक विश्व—जिसकी पहचान तेज़ रफ्तार, तीव्र प्रतिस्पर्धा और ऊँची महत्वाकांक्षाओं से है—में परिवार के लिए समय निकालना अब केवल एक भावनात्मक आवश्यकता नहीं रह गया है, बल्कि यह सामाजिक अस्तित्व का प्रश्न बन चुका है। 2025 की विदाई और 2026 के स्वागत के मोड़ पर खड़े होकर जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो एक कठोर सच्चाई सामने आती है। विकास, तकनीक और करियर की दौड़ ने निस्संदेह जीवन को सुविधाजनक बनाया है, पर धीरे-धीरे मानवीय रिश्तों की ऊष्मा को भी सोख लिया है। परिवार—जिसे सदियों से मानवता का सबसे सुरक्षित आश्रय माना गया—आज स्वयं गहरी असुरक्षा के दौर से गुजर रहा है। सवाल यह नहीं है कि आधुनिकता में कमी है या नहीं, बल्कि यह है कि आधुनिक जीवनशैली के भीतर परिवार व्यवस्था को बचाए रखने की हमारी इच्छाशक्ति और विवेक कितने मज़बूत हैं।
अत्यधिक दबाव वाली कार्यसंस्कृति के बीच परिवार के लिए समय निकालना आज पहले से कहीं अधिक आवश्यक हो गया है। परिवार से जुड़ाव व्यक्ति को केवल भावनात्मक ही नहीं, बल्कि मानसिक और शारीरिक रूप से भी सशक्त बनाता है। इसी संदर्भ में एक हालिया अध्ययन अत्यंत चिंताजनक तथ्य सामने रखता है—साठ प्रतिशत से अधिक लोग अत्यधिक कार्यदबाव और परिवार को समय न दे पाने के कारण अपनी वर्तमान नौकरी बदलना चाहते हैं। “ग्रेट प्लेस टू वर्क” का यह अध्ययन भारत के लिए विशेष रूप से चिंताजनक है, जहाँ कार्य–जीवन संतुलन की वैश्विक रैंकिंग में देश 42वें स्थान पर है।
पेशेवर जीवन का दबाव इस कदर बढ़ चुका है कि व्यक्ति घर में शारीरिक रूप से उपस्थित होते हुए भी मानसिक रूप से दफ़्तर में ही रहता है। डिजिटल कनेक्टिविटी ने समय और स्थान की सीमाएँ तो मिटा दी हैं, पर साथ ही घर और कार्यस्थल के बीच की स्वाभाविक दीवार भी तोड़ दी है। मोबाइल फोन, लैपटॉप और ऑनलाइन मीटिंग्स ने परिवार में संवाद, ध्यानपूर्वक सुनने और भावनात्मक जुड़ाव के अवसर कम कर दिए हैं। विडंबना यह है कि हम परिवार के लिए मेहनत करते हैं, लेकिन उसी मेहनत की कीमत परिवार से दूर होकर चुकाते हैं।
वर्क-फ्रॉम-होम संस्कृति को शुरू में वरदान माना गया था, पर समय के साथ यह पारिवारिक जीवन के लिए एक नई चुनौती बनकर उभरी है। घर अब विश्राम और संवाद का स्थान नहीं रह गया, बल्कि कार्यालय का ही विस्तार बन गया है। माता-पिता बच्चों के सामने भी स्क्रीन में डूबे रहते हैं, जीवनसाथियों के बीच संवाद की जगह नोटिफिकेशन ले लेते हैं, और बुज़ुर्गों की बातें अक्सर “बाद में” पर टाल दी जाती हैं। परिणामस्वरूप परिवार साथ रहते हुए भी भीतर से बिखरने लगता है। यह विघटन केवल भावनात्मक नहीं, बल्कि मूल्यों, परंपराओं और पारस्परिक ज़िम्मेदारियों को भी क्षीण करता है।
कॉरपोरेट कार्यसंस्कृति—जिसमें बढ़ते लक्ष्य, तीखी प्रतिस्पर्धा और पदानुक्रमिक दबाव शामिल हैं—लगातार यह भय पैदा करती है कि ज़रा-सा ठहरना भी पीछे छूट जाने के समान है। इस भय ने जीवन की गति को इतना तेज़ कर दिया है कि ठहराव, आत्ममंथन और रिश्तों का पोषण अब कमजोरी समझा जाने लगा है। जबकि सच्चाई यह है कि परिवार की मज़बूती ही व्यक्ति को मानसिक स्थिरता, आत्मविश्वास और जीवन की चुनौतियों से जूझने की क्षमता देती है। जब यह आधार कमज़ोर होता है, तो बाहरी सफलता के बावजूद व्यक्ति भीतर से टूटा हुआ रह जाता है।
सोशल मीडिया ने इस संकट को और गहरा किया है। एक ही छत के नीचे रहते हुए भी परिवार के सदस्य अलग-अलग आभासी दुनियाओं में जी रहे हैं। दिखावे की संस्कृति, निरंतर तुलना और हर समय उपलब्ध रहने का दबाव रिश्तों में असंतोष और तनाव पैदा करता है। हम दूसरों की ज़िंदगी देखने में इतने उलझ गए हैं कि अपने ही घर में उभर रही भावनाओं को समझने का समय नहीं निकाल पाते। यदि यह प्रवृत्ति यूँ ही चलती रही, तो परिवार केवल एक ढांचा बनकर रह जाएगा—बिना आत्मा के।

इन परिस्थितियों में एक आदर्श और सुदृढ़ पारिवारिक व्यवस्था को पुनर्स्थापित करना कठिन अवश्य है, पर असंभव नहीं। पहला कदम यह स्वीकार करना है कि करियर और परिवार एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं। हमें इस धारणा को त्यागना होगा कि सफलता केवल पद, धन और प्रतिष्ठा से मापी जाती है। परिवार में संवाद, स्नेह और अपनत्व के बिना ऐसी सफलता न केवल अधूरी है, बल्कि खोखली भी है। नए वर्ष के आगमन पर हमें अपने समय, ऊर्जा और प्राथमिकताओं का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। परिवार को बचाए रखने के लिए किसी बड़े दर्शन की नहीं, बल्कि छोटे-छोटे व्यावहारिक कदमों की आवश्यकता है—घर पर रहते हुए तकनीक से सचेत दूरी बनाना, साथ बैठकर भोजन करना, बच्चों और बुज़ुर्गों की बात ध्यान से सुनना, और एक-दूसरे की भावनाओं को महत्व देना। गुणवत्ता समय घंटों की संख्या से नहीं, बल्कि उन क्षणों में मौजूद संवेदनशीलता और सहभागिता से तय होता है।
पारिवारिक ढांचे का नवनीकरण पुराने रीति-रिवाज़ों की कठोर पुनरावृत्ति नहीं, बल्कि आधुनिक यथार्थ के बीच संबंधों के मूल्यों की रक्षा की माँग करता है। जहाँ पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, वहाँ ज़िम्मेदारियों का संतुलित बँटवारा, आपसी सहयोग और सम्मान परिवार को सुदृढ़ बना सकता है। बच्चों को केवल प्रतिस्पर्धी सफलता के लिए तैयार करने के बजाय उनमें भावनात्मक बुद्धिमत्ता, संवेदनशीलता और रिश्तों के प्रति आदर विकसित करना भी उतना ही आवश्यक है। बुज़ुर्गों को बोझ नहीं, बल्कि अनुभव और मूल्यों का भंडार मानना ही परिवार की आत्मा को जीवित रखता है।
घर पर रहते हुए भी डिजिटल जुड़ाव ने तनाव के नए रूप पैदा किए हैं, जिन्हें लंबी यात्राएँ और बढ़ा देती हैं, जो दिन का बड़ा हिस्सा खा जाती हैं। कई बार कार्यस्थल का दबाव आत्मविश्वास तक को क्षीण कर देता है। कार्यघंटों को बढ़ाने पर बहसें जारी हैं, और तर्क दिया जाता है कि अधिक उत्पादकता के लिए लंबे घंटे आवश्यक हैं। परिणामस्वरूप श्रम क़ानूनों में ढील दी जा रही है। अधिक कमाने की चाह और काम का बोझ—दोनों ही बढ़े हैं। ऐसे में संस्थानों और समाज—दोनों के लिए कार्य–जीवन संतुलन को गंभीरता से लेना अनिवार्य है। केवल क़ानून पर्याप्त नहीं; कार्यसंस्कृति में मानवीय दृष्टिकोण का समावेश आवश्यक है। उत्पादकता का अर्थ केवल लंबे कार्यघंटे नहीं, बल्कि संतुलित और संतुष्ट कर्मचारी हैं। जब परिवारिक जीवन स्थिर होता है, तभी व्यक्ति रचनात्मक और प्रभावी ढंग से कार्य कर पाता है।
नए वर्ष की दहलीज़ पर आत्ममंथन अत्यावश्यक है। यदि हम आज परिवार को प्राथमिकता नहीं देंगे, तो आने वाली पीढ़ियाँ सुविधाएँ तो पाएँगी, पर रिश्तों की गर्माहट नहीं। परिवार केवल साथ रहने का नाम नहीं, बल्कि साथ महसूस करने का भाव है। यदि यह प्रक्रिया टूटती है, तो समाज की नींव ही कमज़ोर पड़ जाएगी। इसलिए 2026 में प्रवेश करते हुए हमें यह संकल्प लेना होगा कि तकनीक का उपयोग जीवन को सरल बनाने के लिए करें, रिश्तों की जगह लेने के लिए नहीं; करियर की ऊँचाइयाँ छूते हुए भी परिवार की जड़ों को सींचते रहें। आधुनिकता और मानवता के बीच यही संतुलन एक मज़बूत, संवेदनशील और आदर्श पारिवारिक व्यवस्था की नींव रख सकता है—जो बदलते समय में भी रिश्तों की रोशनी को बुझने न दे।
