प्रवीण कुमार
बिहार में जातीय जनगणना के बाद उसके आंकड़े जारी करने और ओबीसी पॉलिटिक्स पर राहुल गांधी के आक्रामक तेवर से परेशान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को आखिर यह कहना पड़ा कि बीजेपी ने कभी भी जातीय जनगणना का विरोध नहीं किया है. दिल्ली स्थित बीजेपी मुख्यालय में अमित शाह ने पिछले दिनों ओबीसी पॉलिटिक्स पर लंबी बैठक की और कहा जा रहा है कि अब ऐसी ही एक और बैठक अगले हफ्ते लखनऊ में की जाएगी. पार्टी संगठन में फेरबदल को लेकर भी एक के बाद एक सभी फैसलों के केंद्र में पिछड़े वर्ग की राजनीति को रखा जा रहा है. लेकिन अभी भी पार्टी के रणनीतिकार यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि जातीय जनगणना की विपक्षी मांग पर उसका स्टैंड क्या होना चाहिए. इसको लेकर बीजेपी की सेंट्रल लीडरशिप या कहें हाईकमान धर्म संकट में है. बड़े नेता दुविधा में फंसे हैं क्योंकि सवाल 50 से 60 प्रतिशत वोट का जो है.
थोड़ा पीछे की तरफ नजर दौड़ाएं तो जातीय जनगणना के मुद्दे पर बीजेपी शुरुआत में चुप्पी साधे रही. जब भी विपक्ष ने मुद्दा उठाया तो बीजेपी कोई दूसरा मुद्दा पकड़ लेती थी. इसी दौरान बिहार में नीतीश सरकार ने जातीय सर्वे करा दिया और उसके आंकड़े भी जारी कर दिये. सुशील मोदी जैसे नेताओं ने इसका स्वागत किया. साथ ही वह यह कहने से भी नहीं चूके कि इस फैसले में जेडीयू के साथ बीजेपी भी शामिल थी. हालांकि बिहार के कुछ बीजेपी नेता इस जातीय सर्वे के तरीके में कमियां गिनाने लगे, लेकिन कुल मिलाकर हालत ये रही कि बीजेपी के लिए ये मुद्दा न उगलते बना, न निगलते. और अब अमित शाह जिस तरह से ओबीसी पॉलिटिक्स को लेकर जिस तरह से डैमेज कंट्रोल करने में जुट गए हैं, कह सकते हैं बीजेपी अब कोर्स करेक्शन कर रही है.
आप गौर करेंगे तो इंडिया गठबंधन में ममता बनर्जी को छोड़ कर सभी नेता लगभग एक पेज पर हैं. बिहार में जातीय जनगणना के आंकड़े जारी करने के बाद राहुल गांधी तो जैसे लगता है कास्ट सेंसस के ब्रांड एम्बेसेडर की भूमिका में आ गए हैं. याद करें तो ये वही कांग्रेस पार्टी है, जिसने ”जात पर न पात पर मुहर लगेगी हाथ पर” के नारे लगाए थे, लेकिन आज की कांग्रेस और उसके कद्दावर नेता को समझ में आ गया है कि अब राजनीति बदल गई है और उसने क्षेत्रीय दलों के एजेंडा को ही अपना बना लिया है. अब राहुल गांधी जिस भी राज्य में जाते हैं, जातीय जनगणना का वादा कर आते हैं, ओबीसी को उसका हक दिलाने का वादा कर आते हैं. राहुल को इस बात से भी नहीं कि उनके पूर्व के नेताओं ने क्या किया और यह कहने में भी हिचक नहीं दिखाते कि उस वक्त के नेताओं ने अगर गलत किया है तो क्या हम उसे सुधार क्यों नहीं सकते हैं. राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी को लगता है कि यही इकलौता ऐसा मुद्दा है जो कांग्रेस पार्टी को सत्ता में वापसी करा सकती है.
शुरू में तो बीजेपी जातीय जनगणना को बड़े ही हल्के में ले रही थी, लेकिन पांच राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने जिस तरह से इस मुद्दे पर अपने आक्रामक तेवर दिखाए और देश के जनमानस में मिल रहे समर्थन से बीजेपी के पसीने छूट गए. अब बीजेपी की तरफ से कहा जा रहा है कि उनके प्रधानमंत्री पिछड़े समाज से हैं. केंद्र सरकार में पिछड़े मंत्रियों की संख्या भी ज्यादा है. राज्यों की सरकार में भी यही आंकड़ा है. लेकिन तरह-तरह के दावों के बावजूद पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने अब ये मान लिया है कि जातीय जनगणना की अनदेखी नहीं की जा सकती है. लिहाजा पार्टी अब अपनी लाइन को बदलने की तरफ कदम बढ़ा रही है. बीजेपी के सहयोगी दल भी मुखर होते दिखने लगे हैं. अपना दल की अनुप्रिया पटेल ने भी जातीय जनगणना की मांग की है. भारतीय सुहेलदेव समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर भी कुछ इसी तरह की भाषा बोलने लगे हैं.
बहरहाल, बीजेपी मुख्यालय में बैठक के दौरान इंडिया गठबंधन की ओबीसी पॉलिटिक्स से निपटने के लिए अमित शाह ने बिहार, यूपी और महाराष्ट्र से आए नेताओं से पूछा भी कि अब क्या करना चाहिए? फिलहाल यह तय हुआ है कि पिछड़ी जाति के मतदाताओं को टूटने नहीं देना है. चुनावी आकंड़ों पर नजर दौड़ाएं तो 1996 में OBC के सिर्फ 19 प्रतिशत वोट मिले थे. जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में ये आंकड़ा 34 प्रतिशत पर पहुंच गया. साल 2019 में बीजेपी को 44 प्रतिशत ओबीसी वोट मिले. इस दौरान कांग्रेस का ओबीसी वोट शेयर लगातार गिरता रहा. हिन्दुत्व और सोशल इंजीनियरिंग के दम पर बीजेपी पिछले नौ सालों से केंद्र की सत्ता में है. लेकिन जीत की हैट्रिक लगाने के लिए मोदी-शाह नीत बीजेपी को अब अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव करना पड़ेगा. क्योंकि इंडिया गठबंधन की नजर अब पूरी तरह से बीजेपी के सोशल इंजीनियरिंग में टूट पर है. अगर ऐसा हुआ तो सीधा नुकसान बीजेपी का होना तय है.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)