प्रवीण कुमार

साल 2020 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल में घर वापसी करने वाले दिग्गज दलित नेता श्याम रजक ने एक बार फिर 2025 के विधानसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय महासचिव पद और पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है। सियासी गलियारों में ऐसी चर्चा है कि वह एक बार फिर से नीतीश कुमार की जेडीयू का दामन थाम सकते हैं। अगर ऐसा हुआ जिसकी संभावना प्रबल है तो तय मानिए, आगामी चुनाव में दलित राजनीति कांग्रेस-राजद नीत इंडिया गठबंधन का खेल बिगाड़ सकता है। क्योंकि बिहार की चुनावी राजनीति में दलित कमोवेश यादव वोट बैंक की ताकत रखते हैं और दलित कोटे के वोट का 80 फीसदी हिस्सा रविदास, मुसहर, पासवान और धोबी जाति का है।

अपने इस्तीफे में श्याम रजक ने सीधे तौर पर राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव को टारगेट पर लिया है। वह कहते हैं, ‘मैं शतरंज का शौकीन नहीं था, इसीलिए धोखा खा गया। आप मोहरे चलते रहे और मैं रिश्तेदारी निभाने में मशगूल था।’ कुल मिलाकर श्याम रजक का यह इस्तीफा राजद के लिए बड़ा झटका है क्योंकि उन्होंने ऐसे वक्त में पार्टी छोड़ी है, जब दलित आरक्षण का मुद्दा गर्म है। इसे आप इस रूप में भी देख सकते हैं कि बिहार की दलित राजनीति के चार बड़े चेहरों में चिराग पासवान, जीतनराम मांझी, अशोक चौधरी और श्याम रजक का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। इनमें पासवान, मांझी और चौधरी तो पहले से ही एनडीए खेमे में हैं। अब अगर श्याम रजक भी जेडीयू का दामन थामते हैं तो प्रदेश के चारों दलित नेता एनडीए के मंच पर एकजुट नजर आएंगे। ऐसे मे राजद या कांग्रेस या कहें इंडिया गठबंधन के लिए दलित समुदाय के मतदाताओं को सहजने वाला कोई कद्दावर चेहरा नहीं होगा।

जहां तक श्याम रजक की बात है तो एक वक्त में राजद में श्याम रजक और राम कृपाल यादव की तूती बोलती थी। लालू प्रसाद यादव की सियासत में राम-श्याम की यह जोड़ी बड़ी हिट थी। राम (रामकृपाल यादव) और श्याम (श्याम रजक) दोनों आरजेडी को छोड़ चुके हैं। हालांकि, लालू प्रसाद यादव ने एक समय बिहार में जो जातीय समीकरण तैयार किया था उसमें दलितों का एक बड़ा हिस्सा शामिल रहा था। भले ही उनके साथ दलित जाति का कोई बहुत बड़ा नेता न रहा हो, लेकिन लालू की करिश्माई राजनीति से जुड़कर दलित मतदाता गौरवान्वित महसूस करता था। इसमें श्याम रजक जैसे नेताओं की भूमिका अहम होती थी।

श्याम रजक ने अपने राजनीतिक सफर का आगाज लालू प्रसाद यादव के साथ ही किया था। राजद में रहते विधायक और मंत्री बने। सियासत ने करवट ली तो श्याम रजक लालू यादव का साथ छोड़कर नीतीश कुमार के साथ आ गए। 2009 में जेडीयू में शामिल हुए और 2010 में जेडीयू के कोटे से विधायक बने फिर नीतीश सरकार में कैबिनेट मंत्री बने। 2015 में फिर से विधायक चुने गए, लेकिन 2020 में जेडीयू को छोड़कर एक बार फिर राजद में शामिल हो गए। 6 बार के विधायक रहे श्याम रजक ने राजद में आकर घर वापसी जरूर की, लेकिन पुराना मुकाम हासिल करने में सफल नहीं हुए। 2020 के चुनाव में श्याम रजक की परंपरागत सीट राजद ने माले को दे दी। बगल की मसौढ़ी सीट भी नहीं मिल सकी। न ही उन्हें एमएलसी बनाया और न ही राज्यसभा भेजा। लिहाजा रजक ने विधानसभा चुनाव से ठीक पहले राजद को अलविदा कहना बेहतर समझा।

बहरहाल, बिहार में एक ओर जहां चिराग पासवान की पासवान समुदाय के वोटों पर मजबूत पकड़ बनी हुई है वहीं केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी भी अपने मुसहर समुदाय पर पकड़ बनाने के लिए हर संभव कोशिश में जुटे हैं। इसके अलावा नीतीश कुमार बिहार में दलित चेहरे के तौर पर मंत्री अशोक चौधरी को लगातार आगे बढ़ा रहे हैं जो रविदास जाति से आते हैं। धोबी समुदाय के बड़े नेता होने के नाते श्याम रजक भी राज्यव्यापी दलितों के बीच असर रखते हैं। ऐसे में श्याम रजक अगर जेडीयू के मंच पर आकर खड़े हो जाते हैं तो फिर बिहार के चारों बड़े दलित नेता एक साथ एनडीए के मंच पर नजर आएंगे। ऐसे में अगले साल होने वाले चुनाव में इंडिया गठबंधन के घटक दल मसलन राजद के साथ कांग्रेस और वाम दलों का भविष्य किस रूप में सामने आएगा, कहना बहुत मुश्किल है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)