विवेक शुक्ला

नेहरु-गांधी परिवार के करीबी आर.के.धवन नहीं रहे। वे मूलत: टाइपिस्ट थे। हिन्दी-अंग्रेजी टाइपिंग में बेजोड़ थे। एक मिनट में 100 से अधिक शब्दों की स्पीड से टाइप करते थे। देश के बंटवारे के बाद परिवार के साथ दिल्ली आ गए। रिफ्यूजियों के गढ़ करोल बाग में बचपन गुजरा। घर की माली हालत खराब थी। स्कूल के बाद करोल बाग की एक दूकान में काम करने लगे। पढ़ते हुए ही हिन्दी-अंग्रेजी टाइपिंग और शॉर्ट हैंड भी सीख ली। कभी नेहरु जी के निजी स्टाफ में रहे यशपाल कपूर रिश्ते में धवन साहब के मामा थे। उन्हें मालूम था कि भांजा हिन्दी टाइपिंग भी जानता है। एक दिन नेहरु जी के दफ्तर में हिन्दी में कुछ लेटर टाइप करने थे। हिन्दी टाइपिस्ट छुट्टी पर थे। मामा जी यानी य़शपाल कपूर ने भांजे को तुरंत तीन मूर्ति भवन पहुंचने के लिए कहा। मामा जी का आदेश पाते ही आर.के.धवन तीन मूर्ति भवन पहुंच गए। उन्होंने हिन्दी में लेटर टाइप किये। एक भी अशुद्धि नहीं। यहीं से खुल गई आर.के.धवन की किस्मत। उन्हें उसी ही दिन नेहरु जी के स्टाफ में नौकरी मिल गई। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

(ये कहानी इस नाचीज को उन्होंने करीब तीन साल पहले परम मित्र राजन धवन के पुत्र के विवाह के अवसर पर आयोजित पार्टी में सुनाई थी।