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प्रदीप शर्मा 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा को 370 सीटें जीतने का हैरान कर देने वाला टारगेट दिया है। यह टारगेट कितना महत्वाकांक्षी है, इसका अंदाजा पांच साल पहले हुए चुनावों के नतीजों से लगाया जा सकता है। भाजपा ने 2014 में 282 सीटें वह संख्या भी तब बहुत चौंका देने वाली थी जीती थीं और 2019 में उसने अपने प्रदर्शन को सुधारते हुए सीटों की संख्या 303 तक बढ़ा ली थी। हिंदी पट्टी में अपने गढ़ों में उसने अधिकतम बढ़त हासिल की थी।

अतिरिक्त सीटें पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में उसे मिले अप्रत्याशित समर्थन से मिली थीं। यदि भाजपा 2019 के अपने इस चमत्कारिक प्रदर्शन को दोहराती भी है और यूपी से एक दर्जन या उससे अधिक और सीटें जोड़ती भी है- जहां वह 2019 में बसपा, सपा और कांग्रेस से 16 सीटें हार गई थी- तब भी उसका आंकड़ा 315 सीटों के आसपास ही रहेगा।

ऐसे में सवाल उठता है कि 370 का टारगेट कैसे पूरा होगा? भाजपा को इतनी सीटें कहां से मिलेंगी? इसका उत्तर मोदी और उनकी पार्टी द्वारा दक्षिण में अपना विस्तार बढ़ाने के लिए किए जा रहे अथक प्रयासों में छिपा है। कुल मिलाकर पांच दक्षिणी राज्यों कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और केरल में लोकसभा की 543 में से 130 सीटें हैं।

मोदी को उनके सपनों की संख्या तक पहुंचाने में मदद करने के लिए भाजपा को इन राज्यों में बड़ी जीत हासिल करनी होगी। इसके लिए उसे कम से कम 130 में से लगभग आधी सीटें जीतनी होंगी। लेकिन ये मामूली चुनौती नहीं है। अभी तक दक्षिणी राज्यों में कर्नाटक ही एकमात्र ऐसा है, जहां भाजपा ने बढ़त बनाई है। बीएस येदियुरप्पा के नेतृत्व में वहां पार्टी दो बार सत्ता में आई। लेकिन अन्य चार राज्यों में भाजपा मामूली पकड़ ही बना पाई है।

इतना ही नहीं, वह इन राज्यों में अपने आधार को निरंतर गंवा भी रही है। उदाहरण के लिए, 2019 में भाजपा ने तमिलनाडु में एक भी सीट नहीं जीती, जबकि 2014 में वह वहां पर कम से कम एक सीट जीती थी। पिछले साल दक्षिण में भाजपा ने दो विधानसभा चुनाव हारे, जिसके बाद देश की राजनीति में उत्तर-दक्षिण विभाजन की चर्चा ने जोर पकड़ लिया था। भाजपा अपने गढ़ कर्नाटक में हारी और तेलंगाना में उसने मामूली ही प्रगति की।

इससे भी दिलचस्प बात यह थी कि कांग्रेस ने दोनों राज्यों में जीत हासिल की और उस क्षेत्र में अप्रत्याशित वापसी की, जो कभी उसका मजबूत दुर्ग माना जाता था। याद रखें, 1977 में आपातकाल के बाद हुए चुनावों में इंदिरा गांधी की कांग्रेस उत्तर भारत से साफ हो गई थी, लेकिन दक्षिण में तब भी उसे बड़ी जीत हासिल हुई थी।

दक्षिण पर जोर देने का मोदी का सबसे बड़ा कारण एक अखिल भारतीय नेता के रूप में पहचाने जाने की अपनी महत्वाकांक्षा को साकार करना और भाजपा के राष्ट्रीय प्रभुत्व पर मुहर लगाना है। हिंदी पट्टी में मोदी के नाम का सिक्का चलता है, लेकिन विंध्य के दक्षिण में चुनिंदा शहरी क्षेत्रों से परे उनकी अपील सीमित है।

दक्षिण को फतह किए बिना आधुनिक भारतीय इतिहास के पन्नों से नेहरूवादी विरासत को मिटाया नहीं जा सकेगा। लेकिन इसके पीछे आर्थिक प्रश्न भी हैं। दक्षिण, भारत का अधिक समृद्ध और शहरी हिस्सा है। हालांकि वहां देश की केवल 20 प्रतिशत आबादी रहती है, लेकिन पिछले तीन वर्षों में भारत में आने वाले विदेशी निवेश में उसका 35 प्रतिशत हिस्सा रहा है। 

दक्षिण में स्टार्ट-अप्स, विशाल विश्वविद्यालयीन परिसरों और चमचमाते संयंत्रों वाला नया भारत है। चूंकि वैश्विक कंपनियां चीन से अपना निवेश स्थानांतरित करने के लिए नए क्षेत्रों की तलाश कर रही हैं, इसलिए दक्षिण भारत उनके पसंदीदा स्थलों की सूची में सबसे ऊपर आ गया है।

भारत का 46 प्रतिशत इलेक्ट्रॉनिक्स निर्यात दक्षिण से होता है, 46 प्रतिशत टेक यूनिकॉर्न भी वहीं मौजूद हैं, आईटी इंडस्ट्री का 66 प्रतिशत निर्यात पांच दक्षिणी राज्यों से होता है और वैश्विक ऑडिटर्स, डिजाइनर्स, आर्किटेक्ट्स व अन्य पेशेवरों के 79 प्रतिशत हब भी वहां स्थित हैं। जॉब ग्रोथ भी दक्षिण भारत में ही हो रही है।

अगर मोदी अगले तीन वर्षों में भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने और 2047 तक उसे विकसित देशों की सूची में लाने के अपने वादे को पूरा करना चाहते हैं, तो उन्हें दक्षिण में अपनी राजनीतिक ताकत कायम करनी होगी और उसे अपनी दीर्घकालीन योजनाओं में शामिल करना होगा। लेकिन समस्या यह है कि उत्तर भारत में जिन बातों पर वोट मिलते हैं, उन पर दक्षिण में नहीं मिल सकते। 

अगर मोदी अगले तीन वर्षों में भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने और 2047 तक उसे विकसित देशों की सूची में लाने के वादे को पूरा करना चाहते हैं, तो उन्हें दक्षिण में राजनीतिक ताकत कायम करनी होगी।

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