Image

प्रदीप शर्मा 

राज्यसभा के हालिया पंद्रह सदस्यों के चुनाव में कई राज्यों में जिस तरह विधायकों ने पार्टी लाइन से हटकर विरोधी राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों के पक्ष में वोट किया है, उसने राजनेताओं की गिरती साख की फिर पुष्टि हुई है। साथ ही घटनाक्रम ने दलबदल कानून की सीमाओं को फिर उजागर किया है। वहीं इस घटनाक्रम से चुनाव प्रबंधन व येन-केन-प्रकारेण जीत हासिल करने के इरादे का पता चलता है, वहीं विपक्ष की कमजोर रणनीति भी उजागर हुई है। हाल ही में संपन्न राज्यसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में विपक्षी सपा के कुछ विधायकों ने भाजपा प्रत्याशियों के पक्ष में मतदान करके उन्हें राज्यसभा तक पहुंचाया।

राज्य में संपन्न चुनावों में भाजपा के आठ व सपा के दो प्रत्याशी विजयी रहे हैं। वहीं भाजपा गठबंधन में शामिल एक दल के विधायक द्वारा सपा के पक्ष में मतदान की भी बात कही जा रही है। सबसे बड़ा खेला तो हिमाचल में देखने में आया, जहां आवश्यक संख्याबल न होने के बावजूद भाजपा का प्रत्याशी राज्यसभा के लिये चुना गया। निश्चित रूप से इसके पीछे कांग्रेस के छह विधायकों व तीन निर्दलियों का सहयोग रहा। राज्य में कांग्रेस भरपूर बहुमत के चलते सत्ता में और भाजपा विपक्ष में है। इसके बावजूद कांग्रेस प्रत्याशी अभिषेक मनु सिंघवी चुनाव हार गये। दूसरी तरफ कर्नाटक में कांग्रेस तीन प्रत्याशियों को राज्यसभा भेजने में सफल रही।

बहरहाल, हालिया क्रॉस वोटिंग के घटनाक्रम के बाद हिमाचल की राजनीति में तूफान मचा है। तमाम कांग्रेसी दिग्गज सुक्खू सरकार बचाने की कवायदों में जुटे हैं। बताया जा रहा है कि क्रॉस वोटिंग करने वाले सुक्खू सरकार की कार्यशैली व पार्टी आलाकमान से नाराज बताए जा रहे हैं। हालांकि, हिमाचल प्रदेश में सुक्खू सरकार के पास पर्याप्त बहुमत है, लेकिन यदि कुछ और विधायकों का मोहभंग होता है, तो कांग्रेस के लिये मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। इसी संशय के चलते कांग्रेसी दिग्गज शिमला में डेरा डाले हुए हैं। राजनीतिक पंडित बता रहे हैं कि हालिया निष्ठाबदल कारगुजारियों का असर आसन्न लोकसभा चुनावों पर भी पड़ सकता है।

बहरहाल, राज्यसभा चुनावों में क्रॉस वोटिंग कोई नई बात नहीं है, विगत में भी तमाम विधायक पार्टी लाइन से हटकर दूसरे राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों को वोट देते रहे हैं। वहीं सरकार बदलने के खेल भी अब आम हो चले हैं। महाराष्ट्र में शिवसेना में विभाजन के बाद बागी गुट द्वारा भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने का ड्रामा लंबे समय तक चला। गोवा में भी पिछले दिनों दलबदल कर सरकार बनाने का राजनीतिक विद्रूप सामने आया था। सत्ता की ताकत और धनबल का जमकर दुरुपयोग होता नजर आया है।

विधायकों की बाड़ेबंदी के तमाम प्रसंग पिछले दिनों मीडिया की सुर्खियां बनते रहे हैं। एक दल से चुनाव जीतना और निहित स्वार्थों के लिये विरोधी दल का दामन थाम लेना राजनीतिक विसंगतियों की तसवीर ही उकेरता है। महाराष्ट्र प्रकरण में तो राज्यपाल की भूमिका को लेकर भी शीर्ष अदालत ने तल्ख टिप्पणियां की थीं। ऐसे प्रकरणों से राजनीति में नैतिक मूल्यों के पराभव का अक्स तो उभरता ही है साथ ही जनता के साथ भी छल सामने आता है। जनप्रतिनिधि एक राजनीतिक दल के खिलाफ जनता को बरगला कर चुनाव जीतते हैं, फिर उसी विरोधी दल के पक्ष में मतदान करते हैं। इसे स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा तो कदापि नहीं कहा जा सकता।

निस्संदेह क्रॉस वोटिंग करने वाले राजनेताओं की राजनीतिक निष्ठा भी संदिग्ध हो जाती है। लेकिन इसके बावजूद ऐसे नेता अपने कृत्य के पक्ष में अतार्किक दलीलें देते नजर आते हैं। दरअसल, ऐसी परिस्थितियों पर न तो राजनीतिक दल ही अंकुश लगा पाते हैं और न ही चुनाव आयोग ही कुछ करने की स्थिति में होता है। नैतिकता का तकाजा है कि यदि किसी विधायक की अपने दल की रीतियों-नीतियों में आस्था खत्म हो गई है तो उसे ईमानदारी से इस्तीफा देकर नया जनादेश लेना चाहिए। मौजूदा दौर में दलबदल कानून को प्रभावी बनाने के लिये सख्त प्रावधानों की आवश्यकता महसूस की जा रही है। निश्चित रूप से ये निष्ठाएं बदलने का घटनाक्रम लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता के भरोसे को तो कम करता ही है।