प्रदीप शर्मा
चुनावों की तारीखें घोषित किए जाने के साथ ही सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच बयानबाजी भी और तेज हो गई। 20वीं सदी का अंतिम दशक अगर राजनीतिक अस्थिरता का पर्याय बन गया था तो 21वीं सदी अपने साथ स्थिरता लेकर आई। न केवल अटल बिहारी वाजपेयी की अगुआई वाली सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया बल्कि उसके बाद पहले डॉ. मनमोहन सिंह और फिर नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली सरकारों ने देश को लगातार 10-10 साल का शासन दिया।मंदिर की राजनीति तब तक अपनी चमक खो चुकी थी जब तक मोदी ने इसे जनवरी में एक भव्य समारोह के माध्यम से सामने और केंद्र में नहीं ला दिया। इसने बीजेपी के हिंदुत्व की नैया पार लगा दी है। बीजेपी की राजनीति इसी तरह के अन्य ‘कारणों’ से भी संचालित होती हैं। ऐसे में मंदिर के साथ ही नगरिकता संशोधन अधिनिय के साथ ही ज्ञानवापी के अंदर पूजा की बहाली, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करना ये सभी और बहुत कुछ बीजेपी के लिए इस बार के चुनावों में लिए एक ठोस पिच बनाने का मौका दे रहे हैं। बीजेपी को उम्मीद है कि हिंदुत्त विपक्ष के जाति जनगणना नाटकों पर भारी पड़ेगी। अब इस बार के चुनाव में जहां BJP नेतृत्व अगले 20 वर्षों का विजन पेश कर रहा है, वहीं कांग्रेस नेतृत्व इसे लोकतंत्र बचाने का आखिरी मौका करार दे रहा है। यानी इन चुनावों का फलक पांच साल के काम के आधार पर अगले पांच साल के लिए जनादेश के सामान्य ट्रेंड तक सीमित नहीं रहा।
लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक चर्चा पीएम मोदी की ही है। बीजेपी और विपक्ष दोनों ही उनके इर्द-गिर्द अपना अभियान चलाते हैं। भाजपा वस्तुतः उनमें ही समाहित हो गई है। विपक्ष उनके प्रति अपनी नापसंदगी से परेशान है। वह जो प्रचार कर रहे हैं – आर्थिक विकास, देश और विदेश में सशक्त राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, सांस्कृतिक ‘पुनरुत्थान’ – न केवल भाजपा के लिए, बल्कि विपक्ष के लिए भी मुख्य कैंपने का विषय हैं। विपक्ष इन मापदंडों पर उनकी आलोचना कर रहा है। अपने प्रशंसकों के लिए, वह जीवन से भी बड़े, परिवर्तनकारी व्यक्ति हैं जो स्थिरता का वादा करते हैं। अपने आलोचकों के लिए, वह एक अत्यंत ध्रुवीकरण करने वाले व्यक्ति हैं। दिलचस्प है कि सत्तारूढ़ BJP इन चुनावों में जिन फैसलों पर सबसे ज्यादा जोर दे रही है, वे भले पांच वर्षों के मौजूदा सरकार के कार्यकाल के दौरान लिए गए हों, लेकिन उन मुद्दों से जुड़े हैं जो वर्षों नहीं, दशकों से BJP के मूल मुद्दों के रूप में पहचाने जाते रहे हैं। चाहे राममंदिर, अनुच्छेद 370 और CAA की बात हो या ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर पूजा शुरू होने की- ये सारे मुद्दे BJP के इस दावे को मजबूती देते हैं कि वह जो कहती है, करके दिखाती है। विपक्षी दलों ने इन चुनावों में उन लोगों को संबोधित करने और अपनी ओर खींचने की रणनीति बनाई जो BJP के जाने-पहचाने नैरेटिव के प्रभाव से बाहर माने जाते हैं। I.N.D.I.A. बना कर हर सीट पर साझा प्रत्याशी खड़ा करने की सोच के पीछे यही इरादा था। मगर नीतीश कुमार की NDA में वापसी और ममता बनर्जी का I.N.D.I.A. से बाहर रहने का अभी तक का फैसला इस रणनीति के आजमाए जाने से पहले ही नाकाम होने का संकेत है। बहरहाल, देखना होगा कि आगे विपक्षी दल अपने मुद्दे वोटरों के सामने कितने कारगर ढंग से रख पाते हैं। बेशक इलेक्टोरल बांड का मुद्दा इस बार नया है पर महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे पुराने मुद्दे भी उठाए ही जा रहे हैं, लेकिन वोटर के फैसले में इनकी कितनी भूमिका रहेगी यह अभी स्पष्ट नहीं है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी की दो-दो यात्राओं से उपजे प्रभाव की परीक्षा भी इन्हीं चुनावों में होनी है। कुल मिलाकर, विपक्ष और सत्ता पक्ष कुछ भी कहे देशवासियों की जागरूक चेतना को देखते हुए यह तय माना जा सकता है कि आम चुनाव का यह लोकतांत्रिक पर्व एक बार फिर देश में लोकतंत्र की जड़ों को गहरा ही करेगा।