Last Updated on August 7, 2025 4:42 pm by INDIAN AWAAZ

जहाँ आर्थिक स्तर पर अमेरिका के साथ ठप पड़ी व्यापार वार्ताओं के दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं, वहीं वर्तमान में मोदी सरकार की प्राथमिकता घरेलू राजनीतिक परिदृश्य को संभालना है। आगामी चुनावों को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि सरकार की रणनीति फिलहाल अमेरिका के साथ समझौता ढूंढने की नहीं, बल्कि अपने मतदाताओं को यह दिखाने की है कि वह भारत के मौलिक हितों और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।
आर. सुर्यमूर्ति
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अमेरिकी व्यापार दबावों के खिलाफ भारतीय किसानों का सार्वजनिक रूप से मजबूती से बचाव करना, विश्लेषकों के अनुसार एक राजनीतिक रूप से प्रेरित कदम माना जा रहा है। इसका उद्देश्य बढ़ते विपक्षी हमलों का मुकाबला करना और आगामी राज्य विधानसभा चुनावों से पहले घरेलू समर्थन को मज़बूत करना है। हाल के वर्षों में भारतीय कूटनीति की नींव बनी मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की “मित्रता”, अब भारत की आंतरिक राजनीति की प्राथमिकताओं के आगे पीछे हटती दिखाई दे रही है।
सालों से “हाउडी मोदी” और “नमस्ते ट्रंप” जैसी भव्य रैलियों के ज़रिए मोदी और ट्रंप की दोस्ती को राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया गया था। लेकिन अब विपक्ष इस रिश्ते को सवालों के घेरे में ला रहा है — यह पूछते हुए कि इससे भारत को क्या ठोस लाभ मिला। प्रधानमंत्री की ट्रंप से निकटता को लेकर विपक्ष ने व्यंग्य भी किए हैं, यह कहते हुए कि अमेरिका ने तो व्यापार के मोर्चे पर भारत को बार-बार निशाना बनाया है।
‘भारी क़ीमत’ के राजनीतिक मायने
एमएस स्वामीनाथन शताब्दी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में मोदी का बयान, जो अप्रत्यक्ष रूप से अमेरिका को लक्षित करता है, असाधारण रूप से दृढ़ और चुनौतीपूर्ण था। उन्होंने बिना अमेरिका या ट्रंप का नाम लिए कहा कि वे किसानों के लिए “भारी क़ीमत चुकाने को भी तैयार हैं।” यह बयान उस समय आया जब अमेरिका ने कुछ भारतीय वस्तुओं पर कुल 50% तक का शुल्क लगा दिया है और दोनों देशों के बीच व्यापार वार्ता ठप पड़ी है — खासकर कृषि और डेयरी बाज़ारों को लेकर भारत की अनिच्छा के चलते।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि यह बयान आर्थिक से ज़्यादा राजनीतिक स्पष्टीकरण था। बिहार, तमिलनाडु और बंगाल जैसे राज्यों में चुनाव आने वाले हैं, और कृषि एक अत्यंत संवेदनशील मुद्दा है। किसान एक बड़ा और संगठित वोट बैंक हैं, और यदि सरकार अमेरिकी दबाव में झुकती दिखती है, तो इसका राजनीतिक खामियाजा गंभीर हो सकता है — जैसा कि 2021 में विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ हुए आंदोलन में देखने को मिला था।
विपक्ष का हमला: ‘दोस्ती’ बनाम ‘राष्ट्रीय हित’
कांग्रेस समेत समूचे विपक्ष ने इस मुद्दे को लेकर सरकार पर हमला तेज कर दिया है। राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे जैसे नेता यह सवाल उठा रहे हैं कि मोदी-ट्रंप की दोस्ती भारत के लिए कितनी उपयोगी रही है। सोशल मीडिया पर “दोस्त दोस्त न रहा” जैसे तंज़ों के साथ वे यह संकेत दे रहे हैं कि अमेरिका से ‘मित्रता’ का बदला भारत को टैरिफ और दबाव के रूप में मिला है।
विपक्ष ने इस व्यापारिक दबाव को व्यापक भू-राजनीतिक संदर्भों से भी जोड़ा है — यह आरोप लगाते हुए कि मोदी सरकार ने भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और राष्ट्रीय हितों को ताक पर रख दिया है। वे ट्रंप के कश्मीर पर मध्यस्थता के दावों और भारत के रूसी तेल खरीदने पर अमेरिकी आलोचना को भी उदाहरण के तौर पर पेश कर रहे हैं — जबकि अन्य देशों को, जिनमें अमेरिका के सहयोगी भी शामिल हैं, ऐसी खरीदी पर कोई दंड नहीं मिला।
राजनीतिक संदेश: ‘देशहित पहले, संबंध बाद में’
मोदी का हालिया भाषण इस पूरे नैरेटिव को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश के रूप में देखा जा सकता है। जब वे किसानों के बचाव में खुद को ‘कीमत चुकाने को तैयार’ नेता के रूप में पेश करते हैं, तो वह यह दर्शाना चाहते हैं कि उनकी सरकार की नीतियाँ आम भारतीयों के हित में हैं — न कि किसी विदेशी नेता की प्रसन्नता के लिए।
यह संदेश विशेष रूप से राज्य चुनावों से पहले एक ठोस राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है। मोदी खुद को एक ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं जो भारत की संप्रभुता की रक्षा के लिए किसी भी कीमत पर खड़ा रहेगा — भले ही वह व्यक्तिगत रिश्तों की ‘क़ुर्बानी’ ही क्यों न हो।
जहाँ आर्थिक स्तर पर अमेरिका के साथ ठप पड़ी व्यापार वार्ताओं के दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं, वहीं वर्तमान में मोदी सरकार की प्राथमिकता घरेलू राजनीतिक परिदृश्य को संभालना है। आगामी चुनावों को देखते हुए, यह स्पष्ट है कि सरकार की रणनीति फिलहाल अमेरिका के साथ समझौता ढूंढने की नहीं, बल्कि अपने मतदाताओं को यह दिखाने की है कि वह भारत के मौलिक हितों और आत्मसम्मान की रक्षा के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।
