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प्रवीण कुमार
एक देश एक चुनाव (One Nation One Election) की भारी-भरकम योजना के साथ लोकसभा, राज्यों की विधानसभा और स्थानीय निकायों के लिए एक साथ चुनाव कराने की उच्च-स्तरीय समिति की सिफारिशों को स्वीकार करने के बाद बीते 18 सितंबर को केंद्रीय कैबिनेट ने इस प्रस्ताव को मंजूरी भी दे दी है। उम्मीद की जा रही है कि आगामी शीतकालीन सत्र यानी नवंबर-दिसंबर में इस आशय का विधेयक संसद में पेश किया जाएगा।
अपनी योजना को अमल में लाने के लिए सरकार द्वारा तीन विधेयक लाए जाने की संभावना जताई जा रही है जिनमें दो संविधान संशोधन से संबंधित होंगे। प्रस्तावित संविधान संशोधन विधेयकों में से एक स्थानीय निकाय चुनावों को लोकसभा और विधानसभाओं के साथ कराए जाने से संबंधित है। इसके लिए कम से कम 50% राज्यों के समर्थन की आवश्यकता होगी।
जहां तक संविधान संशोधन विधेयकों की बात है तो पहला संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का प्रावधान करने से संबंधित होगा। इसमें विधानसभाओं को भंग करने और ‘एक साथ चुनाव’ शब्द को शामिल करने के लिए आर्टिकल 327 में संशोधन करने से संबंधित प्रावधान भी हैं। इसको 50 प्रतिशत राज्यों द्वारा समर्थन की आवश्यकता नहीं होगी।
दूसरा संविधान संशोधन विधेयक स्थानीय निकायों के चुनावों के लिए राज्य निर्वाचन आयोगों के परामर्श से निर्वाचन आयोग द्वारा वोटर सूची तैयार करने से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन करने का प्रस्ताव करेगा। तीसरे संशोधन के तहत यह विधेयक केंद्र शासित प्रदेशों से संबंधित तीन कानूनों के प्रावधानों में संशोधन करने वाला एक सामान्य विधेयक होगा।
एक देश एक चुनाव के संदर्भ में ये तो हुई सरकार की बात जो उसे इस योजना को लागू करने के लिए करनी है। लेकिन बड़ा सवाल तो यह है कि क्या देश इसके लिए तैयार भी है क्या? चार पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्तों और रामनाथ कोविंद समिति द्वारा परामर्श किए गए आठ में से सात राज्यों के चुनाव आयुक्तों ने एक देश एक चुनाव के विचार को मंजूरी दी है। समिति ने 47 राजनीतिक दलों से परामर्श किया, जिनमें से 32 ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि 15 ने विरोध किया है। प्रस्ताव का विरोध करने वाले 15 दलों में से 5 विभिन्न राज्यों में सत्ता में हैं। चुनाव आयोग भी इस मुद्दे पर एक भाषा में बात नहीं कर रहा है।
याद करें तो साल 2015 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति को सौंपे अपने निवेदन में चुनाव आयोग ने इस विचार को लागू करने में आने वाली कई कठिनाइयों को बताया था। तब उसने कहा कि एक साथ चुनाव कराने के लिए ईवीएम और वीवीपैट मशीनों की बड़े पैमाने पर खरीद की जरूरत पड़ेगी। इसमें 9,284.15 करोड़ रुपए खर्च हो सकते हैं। मशीनों को हर 15 साल में बदलने की भी जरूरत होगी जिसके लिए फिर से खर्च करने होंगे। इसके अलावा, मशीनों के स्टोरेज से वेयरहाउसिंग की लागतें भी बढ़ जाएंगी।
कोविंद समिति के समक्ष अपने प्रस्तुतीकरण में भी चुनाव आयोग ने लॉजिस्टिक्स संबंधी कठिनाइयों का जिक्र किया है। उसने कहा कि 2029 में एक साथ चुनाव कराने के लिए कुल 53.76 लाख बैलेट यूनिट और ईवीएम की 38.67 लाख कंट्रोल यूनिट और 41.65 लाख वीवीपैट की जरूरत होगी। अब इतना सबकुछ खर्चने को सरकार तैयार है? यह अपने आप में बड़ा सवाल है।
एक महत्वपूर्ण और मौजू सवाल जिसे मोदी सरकार के आलोचक व्यवहारिक तौर पर बार-बार उठा रहे हैं कि क्या सरकार वास्तव में एक साथ चुनाव कराने को लेकर गंभीर है? क्योंकि अभी हाल में चुनाव आयोग ने हरियाणा और जम्मू कश्मीर के चुनाव तारीख की घोषणा की। क्या एक महीने बाद होने वाले महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव हरियाणा और जम्मू-कश्मीर चुनाव एक साथ नहीं हो सकते थे?
साल 2022 की बात करें तो आपको याद होगा, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने थे। तब चुनाव आयोग इन दोनों के विधानसभा चुनाव एक साथ नहीं करा सका। दोनों राज्यों के चुनावों की तिथियों की घोषणा भी अलग-अलग की गई। हिमाचल के लिए चुनाव की तिथि 12 अक्टूबर को घोषित की गई, जबकि चुनाव 12 नवंबर को होने थे, वहीं गुजरात में चुनाव की तिथि 3 नवंबर को घोषित की गई, जबकि मतदान 1 और 3 दिसंबर को होने थे। जबकि दोनों ही राज्यों की मतगणना 8 दिसंबर को एक साथ होनी थी।
कहने का मतलब यह कि सैद्धांतिक तौर पर सरकार जो भी कह रही हो और एक हद तक गलत भी नहीं कह रही है कि अलग-अलग चुनाव कराने से देश पर बेवजह आर्थिक बोझ पड़ता है और पूरे साल कहीं न कहीं चुनावी गतिविधियां जारी रहने से विकास की प्रक्रिया भी बाधित होती है। लेकिन जो सरकार चार राज्यों की विधानसभा चुनाव एक साथ कराने में हिचकती है तो पूरे देश में लोकसभा और विधानसभाओं चुनावों को कराने की जिम्मेदारी को व्यावहारिक तौर पर कितना निभा पाएगी? (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)