
आफरीन हुसैन
बिहार विधानसभा चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। जैसे-जैसे सियासी तापमान बढ़ रहा है, वैसे-वैसे पूरे राज्य में “जुमला पॉलिटिक्स” की गूंज भी तेज हो गई है। पटना की गलियों से लेकर नालंदा के गांवों तक, एक सवाल सबसे ज़्यादा चर्चा में है—
अगर एनडीए सचमुच नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केवल “मोदी सरकार” की बात क्यों कर रहे हैं?
प्रधानमंत्री ने अपनी सभाओं में बार-बार कहा है कि बिहार में एनडीए नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है। लेकिन राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि यह महज़ एक चुनावी नारा है — एक अस्थायी रणनीति, जो मतदान के बाद शायद टिक न पाए।
यही कारण है कि लोग पूछ रहे हैं —क्या नीतीश कुमार केवल चुनावी चेहरा हैं, या फिर दिल्ली की असली योजना के लिए एक अस्थायी सहयोगी?
अगर यह “मोदी सरकार” है, तो “नीतीश सरकार” कहां है? विरोधाभास साफ़ दिखता है। अगर वाकई नीतीश कुमार एनडीए के नेता हैं, तो भाजपा खुलकर उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार क्यों नहीं घोषित करती?
राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, भाजपा की यह चुप्पी रणनीतिक है। कई हलकों में यह अटकलें हैं कि भाजपा ने पहले ही तय कर लिया है कि चुनाव के बाद नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं होंगे।
अगर ऐसा है, तो यह सवाल और भी बड़ा हो जाता है—
क्या बिहार में महाराष्ट्र मॉडल दोहराया जाएगा, जहां एकनाथ शिंदे को आगे रखकर देवेंद्र फडणवीस ने परदे के पीछे से सत्ता संभाली?
क्या दिल्ली का “हाई कमांड” बिहार का भविष्य दिल्ली के गलियारों में तय करने की तैयारी कर रहा है, बजाय इसके कि बिहार के लोग खुद अपना मुख्यमंत्री चुनें?
महागठबंधन की स्पष्टता बनाम एनडीए की उलझन
स्पष्ट रूप से देखा जाए तो महागठबंधन ने तेजस्वी यादव को अपना मुख्यमंत्री चेहरा घोषित किया है। वहीं, एनडीए की तरफ से कोई स्पष्ट घोषणा नहीं की गई है।
क्या यह अस्पष्टता भाजपा के अंदर छिपे उस डर को दिखाती है कि नीतीश कुमार, अगर दोबारा सत्ता में आए, तो उन्हें किनारे करना आसान नहीं होगा? या यह किसी नए “पोस्ट-पोल पावर शफल” की तैयारी है?
जनता का मिजाज: उम्मीद और अविश्वास के बीच
बिहार की जनता के बीच संशय बढ़ रहा है। कई मतदाता भाजपा के वादों को अब “माइक्रोफोन स्तर के आश्वासन” मानने लगे हैं — ऐसे भाषण जो मंच पर तो गूंजते हैं, लेकिन ज़मीन पर नहीं उतरते।
राज्य के बुद्धिजीवी और आम नागरिक अब यह सवाल करने लगे हैं कि जो नारे चुनावी सभाओं में गूंजते हैं, क्या वे वास्तव में सत्ता के बाद भी जीवित रहते हैं?
उन्हें शक है कि हर वादे के पीछे कोई नई सियासी गणित छिपी होती है — जो पटना में नहीं, बल्कि दिल्ली में बनाई जाती है।
असली सवाल: बिहार पर राज कौन करेगा?
जैसे-जैसे चुनावी नगाड़े तेज़ हो रहे हैं, एक सवाल अब भी अनुत्तरित है —क्या बिहार का अगला मुख्यमंत्री बिहार की जनता चुनेगी या दिल्ली के सत्ता गलियारों में बैठे रणनीतिकार?
क्या भाजपा “नीतीश-नेतृत्व वाले एनडीए” के नारे के पीछे अपनी आंतरिक सत्ता की जद्दोजहद को छिपा पाएगी?
या मतदाता इस “राजनीतिक नौटंकी” को भांप लेंगे?
बिहार की जनता अब लाइनों के बीच पढ़ना सीख चुकी है। वे जानते हैं कि “एकता” के हर वादे के पीछे सत्ता की कोई न कोई चाल छिपी होती है। और इस बार, शायद जनता का जवाब जुमलों की राजनीति को आईना दिखा दे।
एक बात तो तय है —
बिहार का फैसला केवल यह नहीं तय करेगा कि अगली सरकार कौन बनाएगा, बल्कि यह भी कि जनता अब किसकी बात पर भरोसा करती है — अपने नेता की या दिल्ली से आने वाली आवाज़ पर। जब मतगणना पूरी होगी, तब मुखौटे उतरेंगे —
और नीतीश कुमार के नाम के पीछे छिपा असली चेहरा सामने आएगा।
