प्रवीण कुमार

राष्ट्रीय व राज्यों की राजनीति में जिन प्रमुख गैरभाजपाई क्षत्रपों को लेकर एनडीए के खिलाफ विपक्ष का साझा मंच इंडिया को खड़ा किया गया, उन्हीं में से कुछ क्षत्रप दल मुश्किलें खड़ी करने लगे हैं.

हम बात कर रहे हैं अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी की, नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड की, अरविंद केजरीवाल के आम आदमी पार्टी की. इसके अलावा पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी भी कुछ अलग तरीके से अभी से दबाव बनाना शुरू कर दी हैं. दरअसल इंडिया गठबंधन की अभी तक तीन बैठकें हो चुकी हैं. नाम तय हुआ, दलों की संख्या भी लगभग तय हो गईं, समितियां भी बनाई गईं.

लेकिन अभी तक अगर कुछ तय नहीं हो पाया है तो वह है सभी दल विधानसभा के चुनाव में भी मिल-जुलकर लड़ेंगे या सिर्फ लोकसभा चुनाव के लिए ही बात हुई है. और यहीं से विवाद की शुरूआत हो गई है क्योंकि आम आदमी पार्टी हर चुनावी राज्यों में चुनाव लड़ती दिख रही है. देखा-देखी अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड ने भी अपने-अपने प्रत्याशी मप्र विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ उतार दिए हैं, जबकि ये सभी दल इंडिया गठबंधन के साझेदार हैं.

उधर, पश्चिम बंगाल में महुआ मोइत्रा को लेकर अगल ही कहानी चल रही है जिसको लेकर टीएमसी और कांग्रेस के बीच आने वाले वक्त में टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है. तो सबसे पहले बात करते हैं मध्यप्रदेश की. इंडिया गठबंधन बनने के बाद कायदा तो यही था कि मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा को मिलकर बीजेपी का मुकाबला करना चाहिए था, लेकिन कांग्रेस ने जिस तरह से उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी उससे समाजवादी पार्टी नाराज हो गई है. सपा प्रमुख अखिलेश यादव यहां तक बोल गए कि एमपी में सपा के साथ जैसा व्यवहार किया गया है वैसा ही व्यवहार वह भी यूपी में करेंगे.

हालांकि बाद में सुलह तो हो गई, लेकिन सीट शेयरिंग को लेकर बात नहीं बनी. समाजवादी पार्टी ने 41 सीटों पर अपने उम्मीदवार एमपी में उतार दिए हैं. लगभग 50 सीटों पर सपा चुनाव लड़ने की तैयारी में है. खास बात यह है कि इन सभी सीटों पर सपा का सामना बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस से भी होगा. ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर अखिलेश मध्य प्रदेश के चुनाव में प्रत्याशियों को उतारने पर इतना जोर क्यों दे रहे हैं जबकि वो जानते हैं कि यहां बीजेपी का सीधा मुकाबला कांग्रेस से है यानी चुनाव बाईपोलर होना है?

बीते 30 वर्षों में समाजवादी पार्टी हर बार मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनावों में अपने प्रत्याशी उतारती आई है. इन तीन दशक में लड़े गए चुनावों में सपा का सबसे बेहतर प्रदर्शन 2003 में 7 सीट और उससे पहले 1998 में चार सीटों पर जीत रहा है. 2008 और 2018 में एक-एक प्रत्याशी चुनाव जीतकर विधायक बने. इस तरह से अब तक कुल जमा 13 विधायक सपा के तीन दशक में विधानसभा पहुंचे. असल में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव पर अखिलेश यादव के ज्यादा जोर देने की दो बड़ी वजहें हैं. पहला ये कि अखिलेश इंडिया गठबंधन के सामने एक मजबूत स्टैंड लेना चाहते हैं, जिससे अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में यूपी में सपा के ऊपर कोई भी दल दबाव बनाने की स्थिति में न रहे. दूसरा यह कि अखिलेश जानते हैं कि बुंदेलखंड की 26 सीटों पर 12 से 14 प्रतिशत यादव मतदाता चुनाव में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं. लिहाजा अखिलेश इन सीटों पर अपनी नजर गड़ाए बैठे हैं.अब आते हैं बिहार पर. अखिलेश की सपा के बाद अब नीतीश कुमार की जेडीयू भी मध्य प्रदेश चुनाव की लड़ाई में कूद पड़े हैं. जिन पांच सीटों पर जेडीयू ने अपने उम्मीदवार उतारे हैं, उन सीटों पर काग्रेस पहले ही अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर चुकी है. ये सीटें हैं- पिछोर, राजनगर, राघवगढ़, थांदला और पेटलावद. जबकि इन पांचों सीटों पर 2018 में भी कांग्रेस ने जीत की थी. लिहाजा इन पांचों सीटों पर कांग्रेस पहले ही अपने प्रत्याशी घोषित कर चुकी है. जबकि नीतीश कुमार ऐसे राजनेता हैं जिन्होंने सबसे पहले इंडिया गठबंधन को लेकर पहल की थी और देशभर के तमाम गैरभाजपाई नेताओं से मिलकर इसकी नींव रखी. कहने का मतलब यह कि अखिलेश यादव हों या नीतीश कुमार, दोनों ही अपने-अपने राज्य में बड़े नेता हैं और इंडिया गठबंधन में इनकी बड़ी भूमिका है. लिहाजा अभी तक गठबंधन की तीन बैठकों में इस मसले पर विचार कर लेना चाहिए था कि लोकसभा चुनाव से पहले आगामी पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में सीट शेयरिंग को लेकर क्या स्टैंड होगा. कांग्रेस को निश्चित तौर पर इस मसले पर थोड़ी उदारता बरतनी चाहिए थी और कम से कम समाजपार्टी की जीती हुई सीट तो छोड़नी ही चाहिए थी. बाकी कुछ सीटों पर मिल-बैठकर आपसी सहमति से प्रत्याशी खड़े करने चाहिए थे. नीतीश कुमार को भी इस दिशा में पहल करनी चाहिए थी ताकि पूरे देश को यह संदेश दे पाते कि बीजेपी को हराने के लिए खड़ा किया गया विपक्ष का साझा मंच इंडिया गंभीरता से काम कर रही है. आपसी टकराव से विवाद बढ़ेगा और उसे भुनाने के लिए बीजेपी के तमाम कद्दावर नेता और उसकी आईटी सेल घात लगाकर बैठी हुई है.

चलते-चलते पश्चिम बंगाल की भी बात कर लेते हैं. टीएमसी की तेज तर्रार नेत्री महुआ मोइत्रा पर जिस तरह से पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने का आरोप लगा है उसमें वह बुरी तरह से घिर गई हैं. मामला संसद की एथिक्स कमेटी के पास है. जिस तरह से ममता बनर्जी ने इस मुद्दे पर अपनी ही सांसद से पल्ला झाड़ लिया है, ऐसे में कांग्रेस पार्टी खुलकर महुआ मोइत्रा के साथ खड़ी हो गई है.

इसके बाद इस बात पर बहस तेज हो गई है कि आने वाले वक्त में लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले महुआ मोइत्रा कांग्रेस में शामिल हो सकती है. अगर ऐसा होता है तो बंगाल में ममता को चुनौती देने के लिए कांग्रेस के पास एक फायरब्रांड नेता होगा जो ममता बनर्जी को जरूर नागवार गुजरेगा. लिहाजा इंडिया गठबंधन में कांग्रेस और टीएमसी के बीच टकराव होना तय है. अगर ऐसा होता है तो इंडिया गठबंधन कमजोर होगा और इसका सीधा फायदा बीजेपी को मिलेगा.

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)