श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष

  अलकेश त्यागी

भारत में सदियों से मनते आ रहे कृष्ण जन्म पर आयोजित उत्सवों को देखकर कई बार मन सोचता है कि कृष्ण जन्म में ऐसा क्या है जो लोगों को इतना उत्साहित व प्रेरित करता है। यूं तो वृष्णी  वंश के राजा यदु के  यहाँ जन्म के कारण कृष्ण को यदुवंशी कहा जाता है। पर यह तो उनका सांसारिक परिचय है।  इसका क्या कोई और अर्थ और महत्व भी है? 

       योगदा सत्संग सोसाइटी (वाईएसएस) के संस्थापक और  ‘योगी कथामृत’  के  लेखक श्री श्री परमहंस योगानन्द की श्रीमद्भगवद्गीता पर व्याख्या ‘ईश्वर-अर्जुन संवाद’  के अनुसार, कृष्ण शब्द की अनेक व्युत्पत्तियां हैं जिनमें श्श्यामश् सर्वाधिक प्रचलित है, जो उनके रंग रूप की ओर इशारा करता है।उन्हें चित्रों में प्रायरू गाढ़े नीले रंग का दिखाया जाता है जो देवत्व का प्रतीक है । नीला रंग दिव्य नेत्र में (भ्रूमध्य के बीच) दिखने वाले नीले प्रकाश का भी प्रतीक है जो चेतना की कुटस्थ चौतन्य अवस्था को दर्शाता है। मतलब कृष्ण का रंग आध्यात्मिकता का भी प्रतीक है और एकगूढ़ अर्थ की ओर संकेत करता है। 

       योगानंद जी के अनुसार इंद्रियजनित लिप्साग्रस्त संसार दिव्य प्रेम की शुद्धता को नहीं समझ पाता। शाब्दिक अर्थों से परे गोपियों संग कृष्ण लीलाओं का प्रतीकात्मक अर्थ, ब्रह्म और सृष्टि के उस रास से हैं जो ईश्वरीय लीला को संसार में व्यक्त करता है। कृष्ण की बंसी की मधुर तानें भक्तों को ध्यानजनित समाधि के मंडप में आने को पुकारती हैं ताकि वह आनंददायक ईश्वरीय प्रेम का पान कर सकें।  

       कृष्ण के जीवन का दर्शन हमें भौतिक जीवन के दायित्वों के निर्वहन और उन्हीं के बीच ईश्वरीय सानिध्य पाने के प्रयासों के मध्य सामंजस्य साधना सिखाता है। 

       कृष्ण सिखाते हैं कि परिवेश कुछ भी हो ईश्वर को वहीं ले आओ जहां उसने तुम्हें रखा है। कृष्ण ने अपने राजसी दायित्व  निभाने हेतु  दुष्ट शासकों के विरुद्ध कई अभियान किए जिन में कौरव – पांडवों के बीच हुए महाभारत युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका जीवन आदर्श- कर्मों का त्याग नहीं सिखाता, बल्कि कर्मफलों की सांसारिक बंधनकारी इच्छाओं के त्याग की बात करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण का संदेश हर युग के लिए है दृ योग-ध्यान जनित, कर्तव्यनिष्ठ कर्म, अनासक्ति औरईश्वरीय अनुभूति। गीता में प्रतिपादित मार्ग, साधारण मानव और सर्वाेच्च आध्यात्मिक साधक दोनों के लिए सहज है। जो मानव को उसका सच्चा स्वरूप  दिखाता है कि कैसे वह ब्रह्म से जीव बना, कैसे संसार में अपने सही दायित्व निष्पादित करें और फिर कैसे वापस ब्रह्म बने।

        जीवन के इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु जिस व्यवहारिक प्रणाली का उल्लेख कृष्ण ने अर्जुन से किया है उसे क्रियायोग विज्ञान कहा गया है। यह विज्ञान अंधकारयुग में लुप्तप्राय हो गया था, जिसे 1861 में अमर गुरु महावतार बाबाजी ने बनारस के गृहस्थ श्री श्यामाचरण लाहिड़ी के माध्यम से आधुनिक जगत के लिएपुनः प्रकाशित किया। आगे चलकर बाबाजी ने ही  लाहिड़ी महाशय के एक शिष्य श्री युक्तेश्वर जी को चुना कि वह 1893 में जन्मे बालक मुकुंदलाल घोष को, भारत के प्राचीन विज्ञान क्रियायोग के पश्चिम में प्रचार प्रसार के लिए, प्रशिक्षित करें। यही बालक पश्चिम में योगके जनक के रूपमें परमहंस योगानंद के नाम से विख्यात हुए। योगानंद जी ने 1917 में भारत में योगदा सत्संग सोसाइटी की नींव रखी और 1920 में अमेरिका में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) की स्थापना की जो शताब्दी का सफर पूरा कर आज भी क्रिया योग के प्रचार प्रसार में लगी हैं। अधिक जानकारीरू लेेप.वतह