ललित गर्ग

आज की दुनिया गहरे और बहुआयामी स्वास्थ्य संकट से गुजर रही है। एक ओर जीवनशैली से जुड़ी बीमारियां, मानसिक तनाव, अवसाद, चिंता और असंतुलन तेजी से बढ़ रहे हैं, तो दूसरी ओर संक्रामक रोग, महामारियां और पर्यावरणीय अस्थिरता मानव जीवन के लिए लगातार चुनौती बनी हुई हैं। ऐसे समय में यह स्पष्ट होता जा रहा है कि वैश्विक स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान केवल आधुनिक एलोपैथिक चिकित्सा से संभव नहीं है। यही कारण है कि अब फिर से दुनिया का ध्यान भारत की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों—आयुर्वेद, योग, यूनानी, सिद्ध, होम्योपैथी, प्राकृतिक चिकित्सा और अन्य प्रणालियों—की ओर जा रहा है, जिन्हें सामूहिक रूप से आयुष (AYUSH) कहा जाता है। ये पद्धतियां समग्र स्वास्थ्य, प्राकृतिक उपचार और शरीर व मन के संतुलन पर आधारित हैं। इनमें आयुर्वेद अपनी प्राचीनता, दार्शनिक गहराई और विविध उपचार विधियों के कारण विशेष स्थान रखता है।

इन पारंपरिक प्रणालियों का उद्देश्य केवल रोग का इलाज नहीं, बल्कि शरीर, मन और आत्मा के समन्वय से पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति है। आयुर्वेद वात, पित्त और कफ—तीनों दोषों के संतुलन पर आधारित है और आहार, दिनचर्या, औषधियों तथा पंचकर्म जैसी शुद्धिकरण विधियों पर जोर देता है। शास्त्रीय आयुर्वेद आठ अंगों में विभाजित है—कायचिकित्सा, शल्य, कौमारभृत्य, भूतविद्या, अगद तंत्र, रसायन, वाजीकरण और शालाक्य तंत्र।

इसी प्रकार योग भी मन और शरीर के एकीकरण पर आधारित है, जिसमें आसन, प्राणायाम, ध्यान और नैतिक अनुशासन का विशेष महत्व है। प्राकृतिक चिकित्सा शरीर की स्वाभाविक आत्म-उपचार शक्ति को जाग्रत करने पर बल देती है। यूनानी चिकित्सा रक्त, कफ, पीत पित्त और श्याम पित्त के संतुलन पर आधारित है। दक्षिण भारत में प्रचलित सिद्ध पद्धति औषधियों के साथ योग और ध्यान पर बल देती है। हिमालयी क्षेत्रों में प्रचलित सोवा-रिग्पा (तिब्बती चिकित्सा) भी एक समृद्ध परंपरा है। भारत सरकार आयुष मंत्रालय और राष्ट्रीय आयुष मिशन के माध्यम से इन प्रणालियों के विकास, शोध और मुख्यधारा में एकीकरण को बढ़ावा दे रही है। प्राचीन भारतीय ज्ञान पर आधारित ये पद्धतियां अब वैश्विक स्वास्थ्य मंच पर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करा रही हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत की पारंपरिक चिकित्सा को वैश्विक पहचान दिलाने में निर्णायक भूमिका निभाई है। उन्होंने इसे केवल सांस्कृतिक धरोहर नहीं, बल्कि भविष्य की एक प्रभावी, सुलभ और टिकाऊ स्वास्थ्य प्रणाली के रूप में प्रस्तुत किया है। आयुष मंत्रालय की स्थापना, अंतरराष्ट्रीय योग दिवस की शुरुआत, विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ साझेदारी और वैश्विक सम्मेलनों का आयोजन इसी दिशा में ठोस कदम हैं। नई दिल्ली में आयोजित दूसरा वैश्विक पारंपरिक चिकित्सा शिखर सम्मेलन इस बात का प्रमाण है कि भारत अब केवल सहभागी नहीं, बल्कि मार्गदर्शक बनकर उभर रहा है।

प्रधानमंत्री की ओमान यात्रा के दौरान आयुष और हर्बल उत्पादों के निर्यात का 61.1 मिलियन डॉलर से बढ़कर 65.1 मिलियन डॉलर होना केवल आर्थिक आंकड़ा नहीं, बल्कि वैश्विक विश्वास का प्रतीक है। दुनिया के कई देश यह समझने लगे हैं कि भारत की पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां सस्ती, सुलभ और दीर्घकालिक स्वास्थ्य लाभ देने में सक्षम हैं। यह तब और महत्वपूर्ण हो जाता है जब दुनिया की लगभग एक-चौथाई आबादी बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, आज भी लगभग 170 देशों में 40 से 90 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में पारंपरिक चिकित्सा का उपयोग करते हैं। यह साबित करता है कि पारंपरिक चिकित्सा केवल विकासशील देशों तक सीमित नहीं है। विकसित देशों में भी योग, आयुर्वेदिक उपचार, हर्बल औषधियों और प्राकृतिक चिकित्सा के प्रति रुचि बढ़ रही है। आधुनिक चिकित्सा की दवाओं के दुष्प्रभाव, अत्यधिक खर्च और दीर्घकालिक जटिलताओं के कारण लोग विकल्प खोज रहे हैं। जहां एलोपैथी आपातकालीन और शल्य चिकित्सा में प्रभावी है, वहीं भारतीय पारंपरिक प्रणालियां रोग की जड़ पर प्रहार करती हैं और शरीर की प्राकृतिक उपचार शक्ति को जाग्रत करती हैं। यही कारण है कि इन्हें सुरक्षित, कम दखल देने वाली और दीर्घकालिक स्वास्थ्य के लिए अधिक उपयुक्त माना जाता है।

दूसरे वैश्विक पारंपरिक चिकित्सा शिखर सम्मेलन में भारत ने इसी दृष्टि को दुनिया के सामने रखा। ब्राजील, यूएई, मलेशिया, मैक्सिको, नेपाल और श्रीलंका सहित 16 देशों के साथ द्विपक्षीय बैठकों से स्पष्ट हुआ कि पारंपरिक चिकित्सा अब कूटनीति और वैश्विक सहयोग का सशक्त माध्यम बन रही है। इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी द्वारा शुरू किया गया ‘आयुष मार्क’ वैश्विक गुणवत्ता मानकों की दिशा में ऐतिहासिक कदम है, जिससे उपभोक्ताओं का भरोसा बढ़ेगा और भारतीय उत्पादों को अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति मिलेगी।

हालांकि, यह भी सच है कि पारंपरिक चिकित्सा के क्षेत्र में गुणवत्ता नियंत्रण, मानकीकरण और वैज्ञानिक प्रमाण जैसी चुनौतियां मौजूद हैं। अप्रमाणित दावे और मिलावटी उत्पाद कभी-कभी पूरी प्रणाली की साख को नुकसान पहुंचाते हैं। लेकिन आयुष मार्क और वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देकर इन चुनौतियों से निपटा जा सकता है। आवश्यकता है कि पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान के बीच मजबूत सेतु बनाया जाए।

ऐसे समय में, जब दुनिया की लगभग 4.6 अरब आबादी को पर्याप्त स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध नहीं हैं, भारत की पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियां आशा की किरण बन सकती हैं। ये न केवल उपचार में सहायक हैं, बल्कि रोग-निवारण और स्वास्थ्य संवर्धन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। संतुलित आहार, नियमित योग, प्राकृतिक औषधियों और मानसिक अनुशासन से अनेक रोग प्रारंभिक अवस्था में ही नियंत्रित किए जा सकते हैं।

इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दृष्टि दूरदर्शी कही जा सकती है। उन्होंने पारंपरिक चिकित्सा को अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि भविष्य की आवश्यकता के रूप में देखा है। वैश्विक मंचों पर भारत की चिकित्सा विरासत को स्थापित करने के उनके प्रयास आने वाले वर्षों में विश्व स्वास्थ्य व्यवस्था में भारत की भूमिका को और सशक्त करेंगे। जैसे-जैसे आधुनिक चिकित्सा की सीमाएं स्पष्ट हो रही हैं और दुनिया एक समग्र, सुलभ और मानवीय स्वास्थ्य मॉडल की तलाश में है, भारत की पारंपरिक चिकित्सा न केवल भारत, बल्कि पूरी मानवता के लिए एक सशक्त और व्यवहारिक विकल्प बनकर उभर रही है। यही इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि और सबसे उज्ज्वल भविष्य है।