कांग्रेस ने बिहार में राहुल गांधी के अल्लावरु प्रयोग को अंतिम क्षणों में क्यों छोड़ा और अशोक गहलोत की एंट्री से कैसे बदली उसकी राजनीतिक रणनीति।

बिहार चुनाव 2025 में कांग्रेस ने अंतिम क्षणों में अपनी रणनीति बदल दी। राहुल गांधी के भरोसेमंद कृष्णा अल्लावरु की जगह अशोक गहलोत को भेजा गया। यह फैसला न केवल कांग्रेस की राज्य इकाई की दिशा बदल गया, बल्कि राहुल गांधी के “स्वायत्त कांग्रेस” प्रयोग पर भी प्रश्नचिह्न लगा गया।

अरुण श्रीवास्तव

जब राहुल गांधी ने इस साल की शुरुआत में अपने भरोसेमंद सहयोगी कृष्णा अल्लावरु को बिहार भेजा, तो यह कांग्रेस के भीतर एक बड़े प्रयोग की शुरुआत जैसा प्रतीत हुआ। उद्देश्य स्पष्ट था — दशकों से राजद के प्रति चली आ रही “नम्र अधीनता” की परंपरा को तोड़कर बिहार में कांग्रेस की स्वतंत्र पहचान गढ़ना।

सीट बंटवारे पर गतिरोध और रणनीति में मोड़

अल्लावरु ने बिहार कांग्रेस को यह स्पष्ट संदेश दिया कि अब निर्णय लालू प्रसाद यादव के ड्रॉइंग रूम में नहीं, बल्कि पार्टी के अपने कार्यालयों में होंगे। परंतु जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव की तैयारियां आगे बढ़ीं, राजद नेतृत्व ने सीट बंटवारे में लचीलापन नहीं दिखाया। अंततः, नामांकन की अंतिम तारीख के पूर्व, कांग्रेस को अपनी सोची-समझी रणनीति में बदलाव लाना पड़ा।

राहुल गांधी का ‘सिस्टम मैन’

एलएलएम (जॉर्जटाउन) और एमबीए (आईएनएसईएडी) की पृष्ठभूमि वाले अल्लावरु को राहुल गांधी का “सिस्टम मैन” माना जाता है। उन्होंने साफ कहा था कि टिकट और पद केवल उन्हीं को मिलेंगे जो पार्टी की स्वतंत्र शक्ति बना रहे हैं।
राजद के दबदबे को चुनौती देते हुए उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि तेजस्वी यादव को स्वतः मुख्यमंत्री चेहरा नहीं माना जाएगा — यह रुख स्थानीय पदानुक्रम को असहज कर गया।

विरोध और अंदरूनी असंतोष

बिहार कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं ने अल्लावरु को “दिल्ली से आया बाहरी टेक्नोक्रेट” कहा, जो न तो उनकी भाषा बोलता था, न राजनीति की पारंपरिक शैली समझता था। राजद नेताओं ने उन्हें “कठोर” और “अक्खड़” बताना शुरू किया।
सीट बंटवारे की खींचतान के बीच कांग्रेस के भीतर असंतोष खुलकर सामने आने लगा।

पटना में गहलोत की एंट्री — ‘संघर्ष’ से ‘समन्वय’ की ओर वापसी इसी माहौल में कांग्रेस हाईकमान ने अशोक गहलोत को राजस्थान से बिहार भेजा। गहलोत, जो सोनिया गांधी के भरोसेमंद माने जाते हैं, को राजद के साथ तनाव कम करने का दायित्व सौंपा गया। उनकी पटना यात्रा के कुछ ही घंटों में लालू और तेजस्वी से हुई मुलाकातों ने यह संकेत दे दिया कि कांग्रेस फिर से उसी समन्वयवादी राजनीति की ओर लौट रही है — जिसे खत्म करने के लिए ही अल्लावरु को भेजा गया था।

‘अल्लावरु प्रयोग’ का अंत?

तकनीकी रूप से अल्लावरु बिहार प्रभारी हैं, परंतु व्यावहारिक रूप से उनके अधिकार सीमित कर दिए गए हैं।
अब कमांड पटना में गहलोत के कमरे से निकलती है। इसके बाद सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ कथित रूप से राज्य कांग्रेस नेताओं द्वारा प्रायोजित पोस्ट आने लगीं — टिकट बेचने, पक्षपात करने जैसे आरोपों के साथ।

सवाल वही पुराना: आत्मनिर्भर कांग्रेस या सहयोगी पर निर्भर कांग्रेस? यह पूरा घटनाक्रम उस पुराने प्रश्न को पुनर्जीवित करता है, जिसका उत्तर कांग्रेस ने कभी नहीं दिया — क्या वह बिहार में खुद को पुनर्जीवित करना चाहती है या फिर अपने सहयोगियों की ऑक्सीजन पर जीना ही उसका राजनीतिक यथार्थ बन गया है?

शक्ति सिंह गोहिल, भक्तचरण दास, मोहन प्रकाश — सभी ने “पुनरुद्धार” की बात से शुरुआत की और अंततः राजद के सामने झुककर अपनी भूमिका समाप्त की।लालू प्रसाद द्वारा भक्तचरण दास को “भकचोन्हर दास” कहे जाने के बाद भी पार्टी ने चुप्पी साध ली थी।

पुनरुद्धार का सपना फिर अधूरा

अल्लावरु का दृष्टिकोण, चाहे कितना भी कठोर रहा हो, कांग्रेस की स्वायत्तता की दिशा में पहला गंभीर प्रयास था।
परंतु गहलोत की तैनाती ने न केवल अल्लावरु की भूमिका को सीमित किया, बल्कि स्वतंत्र कांग्रेस के विचार को भी कमजोर कर दिया।

अब पटना के राजनीतिक गलियारों में चर्चा यही है —“राहुल गांधी का बिहार प्रयोग एक मौसम भी नहीं टिक पाया।”
कांग्रेस ने फिर एक बार संघर्ष से अधिक समझौते को चुना है, और इसके साथ ही बिहार में उसके पुनरुत्थान की आशा पहले से कहीं अधिक धुंधली दिख रही है।