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प्रवीण कुमार

देश की चुनावी राजनीति में चाहे वह लोकसभा का चुनाव हो या फिर विधानसभा का चुनाव, जीत का सबसे बड़ा फैक्टर जाति को ही माना जाता है, लेकिन मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव में ठाकुर-ब्राह्मणों की पॉलिटिकल केमिस्ट्री में जाति का ये गणित पूरी तरह से फेल होता दिख रहा है. 

राजनीतिक दलों के टिकट वितरण में जो आंकड़े सामने आ रहे हैं उसके मुताबिक, 14 फीसदी से भी कम आबादी वाले सामान्य वर्ग को 37 प्रतिशत उम्मीदवारी मिली है. यानी अभी से तय हो गया है कि सरकार चाहे किसी की बने, सत्ता का सबसे बड़ा हिस्सा सवर्ण जातियों के पास ही रहेगा. सत्ता में आने पर जातीय जनगणना कराने का वादा करने वाली कांग्रेस पार्टी ने भी 230 सीटों वाली मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में 60 सीटों पर ठाकुर-ब्राह्मणों को उम्मीदवार बनाया है. भाजपा ने हालांकि ऐसा कोई दावा तो नहीं किया है, लेकिन उसने भी इन्हीं वर्गों को सबसे ज्यादा टिकट दिए हैं. कहने का मतलब यह कि ‘जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी’ नारे का तिलिस्म अभी से टूटने लगा है.

मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस-भाजपा के उम्मीदवारों की सूची में ये फैक्ट्स सामने आया है कि प्रदेश की 50 फीसदी आबादी वाले ओबीसी वर्ग के हिस्से में सिर्फ 26 प्रतिशत टिकटें आई हैं. इसमें भी सबसे ज्यादा हिस्सा लोधी और यादवों का है. दोनों पार्टियों की तरफ से सबसे ज्यादा टिकट ठाकुर-ब्राह्मणों को ही मिले हैं. एससी-एसटी को उतनी ही टिकटें मिली हैं, जितनी सीटें उनके लिए आरक्षित हैं.

मध्य प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग की कोर्ट में पेश रिपोर्ट के मुताबिक, सूबे में 50.09 फीसदी ओबीसी हैं. 21.1% आदिवासी और 15.6% एससी हैं. विधानसभा में 47 सीटें एसटी के लिए और 35 सीटें एससी वर्ग के लिए आरक्षित हैं. मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो 7 फीसदी मुस्लिम हैं. हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि प्रदेश में सवर्णों की आबादी 24 प्रतिशत से ज्यादा है.

एक अध्ययन के मुताबिक, राष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो 55% लोग चुनावों में अपनी जाति के उम्मीदवार को ही वोट देना पसंद करते हैं, लेकिन मध्य प्रदेश में ये प्रवृत्ति राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है. यहां 65% मतदाता अपनी जाति के उम्मीदवार को वोट देना पसंद करते हैं. इस लिहाज से ”जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी” का नारा लगाने वाली कांग्रेस के लिए ये आंकड़े ठीक नहीं हैं. 

भाजपा-कांग्रेस, दोनों दलों ने ठाकुर और ब्राह्मणों पर सबसे ज्यादा भरोसा जताया है. दोनों ही दलों ने इस चुनाव में इन दो जातियों के 60-60 उम्मीदवारों को मौका दिया है. मतलब यह पहले ही तय हो गया है कि चुनाव में जीते कोई भी, 230 सदस्यों की विधानसभा में 60 विधायक इन्हीं दो जातियों के होंगे. जैन समुदाय पर भी दोनों ही पार्टियों ने बराबर का भरोसा जताते हुए 7-7 प्रत्याशी उतारे हैं. सवर्ण वर्ग को कांग्रेस ने सबसे ज्यादा 85 टिकट दी हैं, जबकि भाजपा ने इस वर्ग के 79 उम्मीदवारों को मौका दिया है. 

जहां तक ओबीसी की बात है तो पिछड़ा वर्ग आयोग ने आरक्षण के मसले पर दो साल पहले हाईकोर्ट में जो रिपोर्ट पेश की थी, उसमें ओबीसी की आबादी 50.1 फीसदी बताई गई है. हालांकि, जातियों के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए हैं, लेकिन दोनों ही पार्टियों ने सबसे ज्यादा टिकट लोधी, यादव, कुर्मी और कुशवाहा जाति के उम्मीदवारों को बांटे हैं. उमा भारती की नाराजगी के बाद भाजपा ने सबसे ज्यादा 11 लोधी उम्मीदवार उतारे हैं. कांग्रेस ने लोधी और यादव समाज को बराबर 7-7 सीटें दिए हैं. ओबीसी कैटेगरी में भाजपा ने कांग्रेस से ज्यादा टिकट दिए हैं. भाजपा ने जहां 68 टिकट पिछड़ा वर्ग को दी हैं, वहीं कांग्रेस ने 60 प्रत्याशी ओबीसी के उतारे हैं.

बहरहाल, पूरे देश में घूम-घूम कर जिस तरह से कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी नौकरी से लेकर राजनीति तक में ओबीसी की हिस्सेदारी की बात कर रहे हैं, जब उसे जमीन पर उतारने की बारी आती है तो वह सफल होता दिख नहीं रही है. अब इसका चुनाव पर कितना असर पड़ता है यह तो 3 दिसंबर को जनादेश आने के बाद ही पता चल पाएगा, लेकिन अगर मोदी-शाह नीत बीजेपी से मुकाबला कांग्रेस को करना है और ओबीसी का पूरा जनाधार अपनी ओर खींचना है तो हर हाल में उसे जमीन पर उतारते दिखना होगा. (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)

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