मलिक असगर हाशमी
बात थोड़ी पुरानी है। बड़े बेटे का डिप्लोमा इंजीनियरिंग में दाखिला कराने के लिए हरियाणा के इंटरेंस टेस्ट का फार्म जमा कराने गुरूग्राम के मानेसर पॉलिटेकनिक कॉलेज गया था। वहां एक युवक से मुलाकात हो गई। बाचतीच में पता चला कि वह इसी कॉलेज के मेकेनिकल इंजीनियरिंग के तीसरे वर्ष का छात्र है। जब हम खुलकर बातें करने लगे तो उसने बड़ी बेबाकी से बताया कि मुस्लिम वर्ग के सामान्य वर्ग के होने के नाते मेरे बेटे का दाखिला हरियाणा के किसी सरकारी पॉलिटेकनिक कॉलेज में तभी संभव है, जब वह टेस्ट में श्रेष्ठतम प्रदर्शन करे। साधारण नंबरांे से पास करने वाले सामान्य जाति के छात्रों के लिए मौजूदा आरक्षण व्यवस्था में दाखिला संभव नहीं। कुछ दिनों बाद बेटे के टेस्ट का रिजल्ट आया। उक्त छात्र की भविष्यवाणी सही साबित हुई। अच्छे रैंक के बावजूद बेटे का दाखिला किसी सरकारी कॉलेज मंे नहीं हो पाया। उसके मुकाबले कम रैंक लाने वाले छात्र आरक्षण कोटे का लाभ लेकर प्रदेश के सरकारी कॉलेजों में दाखिला लेने में सफल रहे। तब वक्त वास्तव में बहुत बुरा लगा था। लगा, मौजूदा आरक्षण व्यवस्था सामान्य वर्ग के तमाम होनहार युवाओं के लिए तरक्की के दरवाजे तंग करने वाली है। हमारे वर्ग के अधिकांश युवा टैलेंट होने के बाद भी वह सब कुछ हासिल नहीं कर पाएंगे, जिसके वे हकदार हैं।
चार दिन पहले आए भारतीय प्रशासनिक सेवा के परीक्षा परिणाम के दौरान 2015 की आईएएस टॉपर टीना डाबी को लेकर सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो फुटेज ने हमारे पुराने जख्म को फिर ताजा दिया। फुटेज में बताने की कोशिश की गई कि टीना डाबी दलित हैं, इसलिए भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा के दोनों पेपरों में 195 अंक लाने पर भी सफल रहीं, जबकि उनके मुकाबले 230 अंक लाने वाले अंकित श्रीवास्तव इसलिए इसमें असफ रहे कि वह सामान्य वर्ग से आते हैं। अंकित श्रीवास्त के हवाले से वायर वीडियो में बताया गया कि टीनी डाबी के माता-पिता इंजीनियरिंग सेवा में हैं और उच्च मध्य वर्गी से हैं। अंकित भी ऐसे ही एक परिवार की संतान हैं। तीन साल पुराने इस वीडियो को अभी किसने और क्यों वायरल किया ? यह अलग बहस का विषय है, लेकिन मेरे या अंकित श्रीवास्तव का साथ जो कुछ हुआ वह आज भी सिर उठाए खड़ा है। आखिर मौजूद आरक्षण व्यवस्था कब तक जारी रहेगी ? देश मंे आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू क्यों नहीं किया जा रहा है ? ये सवाल नए नहीं हैं। पहले भी उठते रहे हैं और आगे भी उठते रहेंगे। इसके नाम पर हाल में भारत बंद भी हो चुका है। देश में जैसे-जैसे बेकारी, बेरोजगारी बढ़ रही है, ऐसे सवालों की गंभीरता बढ़ती जा रही है। क्या वजह है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोग वहीं खड़े हैं जहां पहले थे ? अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय के लिए 2014 मंे अमिताभ कुंडू द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के मुताबिक, देश की कुल जनसंख्या के 16.4 प्रतिशत दलित वर्ग के एक तिहाई लोगों के पास जीवन में काम आने वाले जरूरत के सामान भी नहीं हैं। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ज्यादातर दलित गांवों मंे बसे हैं और उनमें से 45 प्रतिशत के पास जमीन भी नहीं है। भारत सरकार के पूर्व संयुक्त सचिव ओपी शुक्ला ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि सरकारी नौकरियों में एसटी, एसटी के जितने लोग हैं उनमें से 80 प्रतिशत गु्रप सी और डी की नौकरियां करते हैं। यानि अधिकतर दलित सरकारी महकमों में या तो चपरासी, सफाई कर्मचारी हैं या ऑफिस ब्वाय, क्लर्क अथवा डॉटा ऑपरेटर का काम करते हैं। नेशनल कमिशन फॉर शेड्यूल कास्ट के आंकड़े बताते हैं कि देश में 1064 जातियां अनुसूचित जाति और जनजातियों की श्रेणी में आती हैं जिन्हें हम दलित कहते हैं। सरकारी नौकरियों में दलितों का कोटा 15 प्रतिशत है, पर कोटे से दो प्रतिशत ज्यादा लोग इसलिए सरकारी नौकरियों में हैं, क्योंकि सफाई कर्मचारी किसी और जाति का नहीं है। हरियाणा में तकरीबन 4500 दलित कर्मचारियों का बैक लॉग पिछले डेढ़ दशकों से भरा नहीं गया है। गु्रप डी यानी क्लास फोर्थ नौकरियों में दलितों की भागीदारी 19.3 प्रतिशत है।
दलितों से संबंधित इन आंकड़ांे को याद दिलाने का उद्देश्य मात्र इतना है कि जब आरक्षण से दलितों को मिलने वाली सुविधाओं पर सवाल उठाए जाएं तो इस वर्ग की बदहाली की दास्तां को दरकिनार न किया जाए। यहां यह सवाल भी विचारनीय है कि आरक्षरण के तमाम तरह के लाभ मिलने के पर भी इस वर्ग की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक, बौद्धिक दशा क्यों नहीं सुधर रही है ? इसके लिए कौन जिम्मेदार है ? यह कौन और कब दुरूस्त करेगा ? क्यों न दलितों के सामान्य श्रेणी के बराबर आने का इंतजकार किए बगैर आरक्षण में बदलाव कर दिया जाए ? आरक्षण जातिगत आधार पर न देकर आर्थिक आधार पर देने की व्यवस्था कर दी जाए ? एक हद तक यह सवाल जायज लगते हैं, क्योंकि सामान्य जातियों के एक बड़े हिस्से की सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक दशा भी कुछ ठीक नहीं। यह सवाल भी अहम है कि यदि आर्थिक आधार पर आरक्षण व्यवस्था लागू कर दी जाए तो सामान्य श्रेणी के मुकाबले दलितों की दशा की तुलना कैसे होगी ? आर्थिक आधार पर आरक्षण देने में कोटा दर कोटा तय करने की नौबत नहीं आएगी ?
इन सवालों के बीच कुछ और अहम सवाल दरकिनार नहीं किए जा सकते। दलित नेता अपने वर्ग के उत्थान में किस तरह की भूमिका निभा रहे हैं ? डॉक्टर भीम राव अंबेडकर और मान्यवर काशीराम ने अपना सारा जीवन दलित जागृति में खपा दिया। उनके अनुयायी क्या कर रहे हैं ? क्या उनके अनुयायियांें का दलित आंदोलन सत्ता बचाने और घर भरने तक सीमित है ? लोकसभा की 543 सीटों में एससी के लिए 84 और एसटी के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं। इसी तरह राज्यों की विधानसभाओं में कुल 607 एससी और 554 सीटें एसटी के कोटे के अधीन आते हैं। सदनों में इतनी बुलंद आवाज होने के बावजूद आखिर दलितों की फरियाद क्यों नहीं सुनी जा रहा है ? अपने देश में कई राष्ट्रपति दलित हुए हैं। मौजूदा राष्ट्रपति भी इसी वर्ग से आते हैं। फिर भी इनके हालात क्यों नहीं बदल पा रहे हैं ? मायावती, रामविला पासवान सरीखे नेता आखिर इतने सालों से दलित रानीति के नाम पर क्या कर रहे हैं ? पटना में कुछ आईआईटी के छात्रों ने दलितों की नई पार्टी बनाई है। वे कहते हैं मौजूदा दलित नेतृत्व उनके वर्ग हित में काम नहीं करता ? एक साल बाद लोकसभा के चुनाव होने हैं। इस लिए दलित राजनीति फिर जोर पकड़ने लगी है। हर चुनाव में ऐसा ही होता है। वास्तविक प्रयासों की बजाए जब तक चुनावों में जातियों और समुदायों के पुचकारने की राजनीति चलती रहेगी टीना डाबी और आरक्षण पर सवाल उठते रहेंगे।
देश को आवश्यकता है सच्चे प्रयासों की।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं